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अपश्चिम तीर्थकर महावीर
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शत्रु या मित्र, सब पर समदृष्टि रखते हो । किसी का गलत करने पर भी प्रतिकार नहीं करते, तब आपकी सेवा में कौन रहना चाहेगा? सेवा करें भूखे मरें, उपसर्ग सहें तिस पर कोई सहानुभूति नहीं इसलिए निष्फल आपकी सेवा में रहना नहीं चाहता । तब सिद्धार्थ बोले हमारी तो यही जीवनचर्या है। ऐसा सिद्धार्थ द्वारा बोलने पर गोशालक कहता हैफिर मैं जा रहा हूं। यों कहकर प्रभु से पृथक् मार्ग पर चल देता है । प्रभु विशाला नगरी की ओर पधार रहे हैं और गोशालक एकाकी राजगृह नगर की ओर जा रहा है। रास्ते में जाते हुए गोशालक ने एक विशालकाय अरण्य में प्रवेश किया, जहां पर पांच सौ चोर रहते थे। वे चोर बड़े ही सजग रहते थे। इनमें से कुछ वृक्षों पर चढ़कर आने वाले को सुदूर से ही देख लेते थे। उन चोरों ने गोशालक को दूर से आते हुए देखा। तब उन्होंने अपने दूसरे साथियों से कहा कि देखो विना पैसे वाला कोई नग्न पुरुष आ रहा है। तब वे दूसरे चोर बोले कि भले ही उसके पास कुछ नहीं है, तो भी उसे ऐसे ही नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि वह राजा का गुप्तचर भी हो सकता है इसलिए उसको पराजित करना ही उचित है। ऐसा चिन्तन कर गोशालक के पास आने पर उसे मामा-मामा कहकर उसको चारों तरफ से घेर लिया और उसके कंधे पर बैठकर उस पर सवार हो गये । और उसे चलाने लगे । जब वह चलता-चलता पूर्णरूपेण से थक गया, मात्र श्वास ही बाकी रह गया तब वे चोर उसे वहां छोड़कर चल दिये।
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चोरों के जाने के बाद मात्र श्वास गिनने वाले गोशालक का अंहकार चूर-चूर हो गया। वह चिन्तन करने लगा - ओह ! कैसी मेरी भ्रांति थी। मैंने तो सोचा था कि गुरुदेव से पृथक् विचरण कर सुख-शांति पूर्वक रहूंगा लेकिन यह क्या? प्रथम दिन ही भयंकर प्रताडना । वहां तो ऐसी विपत्ति आने पर इन्द्र भी रक्षा कर देता था लेकिन यहां.. ...... यहां तो मेरा कोई नहीं है। वहां तो भगवान का अतिशय भी गजब का था, लेकिन अब किससे कहूं? किससे बोलू? किससे ? कौन मुझे आगे का मार्ग बतलाये? ऐसी विपत्ति में अकेले रहने से जो गुरुदेव के पास जाना ही श्रेयस्कर है। मुझे तो लौट जाना गहिए । प्रस्तुत शिष्य वही है जो गुरु चरणों में लौट जाये। गलती