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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 171 तीर्थेश प्रभु पर अनुराग भाव जागृत हुआ। चिन्तन किया कि आज मेरा कैसा अहोभाग्य है कि मेरे स्थान पर तीर्थपति स्वयं पधारे हैं। ऐसे महान पुरुषों के दर्शन महान पुण्य से होते हैं। इनकी महिमा तो अकथ्य है। मैं इनका क्या स्वागत कर सकता हूँ? फिर भी यत्किंचित् प्रयास करता हूं। ऐसा चिन्तन कर आनन्दविभोर हो वह यक्ष दिव्य पुष्प और विलेपनादि से प्रभु की पूजा करता है।
प्रभु वहां से विहार कर शालिशीर्ष पधारते हैं। शालिशीर्ष के उद्यान में प्रतिमा धारण कर कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। उस समय माघ महिना था। वहां कटपूतना नामक एक व्यन्तरी देवी रहती थी। वह व्यन्तरी प्रभु के त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में विजयवती नामक पत्नी थी। उसे उस भव में जितना चाहिए, उतना अपने स्वामी द्वारा सम्मान नहीं मिला इस कारण पति-रोष से मृत्यु को प्राप्त कर वह उस भव में व्यन्तरी देवी हो गयी। प्रभु को देखते ही उसको पूर्वभव के वैर का स्मरण हो आया। वैर-परम्परा जन्म-जन्मान्तर तक चलती है। भगवान पार्श्वनाथ और कमठ का वैर भी अनेक भवों तक चलता रहा। यह महाघातक परम्परा है। उसी के कारण पूतना का वैर जागृत हुआ। उसने एक तापसी का रूप बनाया। सिर पर जटा, तन पर वल्कल वस्त्र धारण कर प्रभु के सम्मुख आई।।
___माघ ऋतु की वह भयंकर सर्दी, उसमें कटपूतना ने शीतल जल बरसाना प्रारम्भ किया। ऐसा शीतल जल, जिसके संस्पर्श मात्र से रोंगटे खड़े हो जायें। ऐसी कंपकंपाने वाली शीतल जलधारा के साथ वह प्रभु के स्कन्धों पर खडी होकर शीतलहर चलाने लगी। शीतल पानी और ठंडी-ठंडी शीत लहरें उस शीत ऋतु में भयंकर कप्ट पैदा कर रही थीं। सम्पूर्ण रात्रि कटपूतना ने ऐसा शीत उपसर्ग दिया लेकिन शिला-तनय मनु महावीर समभावपूर्वक सहन करते रहे और आत्मसाधना में लीन. धर्म-धान में आरोहण करते रहे। इस प्रकार उपसर्ग सहन करने से भी कमों की निर्जरा करते हुए प्रनु का अवविज्ञान विस्तृत एमा! ये विज्ञान से सम्पूर्ण लोक को जानने-देखने लगे। जब प्रभु दे मद से नये. तब जो अलविज्ञान साथ में लाये, उससंद एकादशांग साकार करने वाले बने लेकिन जब उनका निदर