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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 150 तत्पश्चात् वह गोशालक प्रभु के समीप ही रहने लगा। भगवान गोशालक को साथ लेकर स्वर्णखल की तरफ विहार करते हैं। मार्ग में चलते हुए एक स्थान पर देखा कि ग्वाले खीर पका रहे थे। उन्हें देखकर गोशालक ने प्रभु से कहा कि मुझे बहुत भूख लगी है, यह जो खीर बन रही है इसे खाकर चलेंगे। तब सिद्धार्थ देव ने कहा- वह खीर तुम्हें मिलने वाली नहीं, यह खीर बनने से पहले हंडिया फूट जायेगी और खीर मिट्टी में मिल जायेगी। तब गोशालक ने भगवान के वचनों को मिथ्या सिद्ध करने के लिए प्रभु से कहा कि आप पधार जाओ, मैं तो यहीं रुका हूं। मैं खीर खाकर ही आऊँगा। भगवान विहार करके पधार गये।
गोशालक उन ग्वालों के पास गया और उनसे बोला कि मेरे गुरु ने कहा है कि खीर पकने से पहले तुम्हारी हंडिया फूट जायेगी। तब उन ग्वालों ने उस हंडिया को बांसों से बांध दिया। लेकिन उस हंडिया में चावल अधिक डाले हुए थे। अतः चावल फूलने से थोड़ी देर बाद वह हंडिया फूट गयी। थोड़ी खीर, जो हंडिया में थी, उसे ग्वाले खा गये। गोशालक को कुछ भी नहीं मिला। तब उसने सोचा, जैसा होना होता है वही होता है। अतः नियतिवाद ही वास्तविक है।
गोशालक बिना खीर खाये जिधर प्रभु ने विहार किया उधर ही विहार करने लगा। भगवान विहार करके ब्राह्मणग्राम पहुंच चुके थे। उस गांव में मुख्य दो पाड़े थे। उन दोनों पाड़ों के मालिक दो भाई थे नन्द और उपनन्द । प्रभु के बेले के तप का पारणा था। पारणे के लिए प्रभु नन्द के पाड़े में गोचरी पधारे। उसने दही सहित क्रूर (करबा) बहराया। प्रभु ने पारणा किया । इधर गोशालक भी ब्राह्मणगांव में आया। क्षुधा तो लग ही रही थी। उसने देखा कि नन्द के पाड़े से उपनन्द का पाड़ा बड़ा है इसलिए वहां पर आदर सहित भिक्षा मिलेगी अतः मुझे वहीं जाना चाहिए। यह सोचकर वह उपनन्द के पाड़े में चला गया। उसे आया देखकर उपनन्द ने अपनी दासी से कहा कि इस संन्यासी को बासी चावल दे दो। तब दासी गोशालक को बासी भात देने के लिए उद्यत हुई। गोशालक को बासी भात रुचिकर नहीं थे अतः अरुचिकर होने से गोशालक उपनन्द का वचनों द्वारा तिरस्कार करने लगा। तब उपनन्द ने दासी से कहा- यदि यह अन्न नहीं लेता है तो