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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर 149
साधनाकाल का तृतीय वर्ष त्रयोदश अध्याय
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भगवान नालन्दीपाड़ा से कोल्लाक सन्निवेश पधार गये हैं । चतुर्थ मासक्षपण भी पूर्ण हो गया है। पारणे हेतु प्रभु भिक्षार्थ पधारे। उसी गांव में बहुल नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह दूसरे ब्राह्मणों का आदर करने के लिए उनको अपने घर भोजन करवाता था। प्रभु भिक्षा के लिए उस बहुल ब्राह्मण के यहां पधारे। उसने भक्तिभावपूर्वक घी-शक्कर सहित खीर प्रभु को बहराई । तब देवताओं ने अहोदान - अहोदान की ध्वनि गुंजायमान की और पांच दिव्यों की वर्षा की। प्रभु पारणा करके एक स्थान पर जाकर कायोत्सर्ग करने लगे' । इधर गोशालक सायंकाल आया और लज्जा से चुपचाप आकर बैठ गया फिर देखा कि भगवान वहां नहीं हैं तब लोगों से पूछा कि प्रभु कहां गये? लेकिन किसी को पता नहीं था कि प्रभु कहां पधारे ? अतः कोई भी भगवान के विहार की बात नहीं बता पाया । तब वह दीन बनकर खुद ही प्रभु को खोजने निकला । दिनभर भगवान को खोजा लेकिन कहीं पर भी उसे भगवान नहीं मिले। तब सोचा कि मैं फिर एकाकी रह गया हूं। ऐसा चिन्तन कर वहां से निकला । घूमता हुआ कोल्लाक ग्राम में आ गया। वहां कोल्लाक ग्राम में लोगों के मुंह पर चर्चा थी कि बहुल ब्राह्मण धन्य है। उसने एक मुनि को दान दिया तो देवताओं ने उसके घर पांच दिव्यों की वर्षा की। गोशालक ने लोगों से यह वार्ता सुनी तो उसे यह बात समझते देर नहीं लगी कि यह दिव्य प्रभाव मेरे गुरु का है। वह आश्वस्त हो गया कि हो न हो गुरु यहीं पर हैं। उन्हें ढूंढना चाहिए । तब वह कोल्लाक सन्निवेश में प्रभु को ढूंढने लगा। पैनी दृष्टि से खोजने पर एक स्थानक में कायोत्सर्ग करते हुए प्रभु को देखा । प्रभु को देखते ही गोशालक उनके पास गया और प्रणाम करके निवेदन किया कि भगवन्! पहले मैं दीक्षा के योग्य नहीं था लेकिन अब स्त्री आदि सब से रहित होने के कारण दीक्षा देने योग्य हूं। आप मुझे शिष्य रूप में स्वीकारें । आपका अपूर्व वात्सल्य मुझे आकर्षित कर रहा है। आपके बिना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकता। इसलिए मैं आज से आपका शिष्य हूं। प्रभु ने उसको शिष्य रूप में स्वीकार किया' ।