________________
अपश्चिम तीर्थंकर महावीर 151
तुम ये बासी भात इसके सिर पर डाल दो। तब दासी ने वैसा ही किया जिससे गोशालक भयंकर क्रोधायमान हुआ । उस क्रोध में आगबबूला होकर बोला कि यदि मेरे गुरु का तप हो तो ये उपनन्द का घर जलकर राख हो जाये । प्रभु के नाम से दिया गया शाप कभी निष्फल नहीं होता ऐसा, चिन्तन कर समीपवर्ती व्यन्तर देवों ने उपनन्द का घर घास के पुंज की तरह जलाकर राख कर दिया। प्रभु ब्राह्मणकुण्ड से विहार कर चम्पानगरी पधारे। वहां चातुर्मासार्थ विराजे । दो मासक्षपण करने की प्रतिज्ञा ग्रहण कर कायोत्सर्ग करके ध्यानस्थ बन गये।
प्रभु आत्मचिन्तन में लीन उत्कटिक आसनादि से कायोत्सर्ग करते हुए शरीर से पूर्णतया निस्संग रहने लगे । अन्य कोई देव, मनुष्य, तिर्यंच के उपसर्गरहित यह चातुर्मास सानन्द सम्पन्न हुआ और दूसरे मासक्षपण का पारणा अर्थात् साठ दिन का पारणा कर गोशालक सहित कालाय नामक ग्राम में पधारे।
1.
संदर्भः साधनाकाल का तृतीय वर्ष, अध्याय 13 (क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; (ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि, पृ.276 (क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास; पृ. 283
J. 283
2.
3.
4.
ம்
(ख) आवश्यक मलयगिरिः पृ. 276
(ग) विशेषावश्यक भाष्य; गा. 1909
त्रिषष्टि श्लाका पु. चा.; पुस्तक 7: पर्व 10; पृ. 54 तेना आवा वचन सांभली जे के प्रभु वीतराग हता तोपण तेना भवने जाणी ने तेनी भव्यता ने माटे प्रभु ए तेनुं वचन स्वीकार्य महापुरुषो कयां वत्सल नथी थता ?
(क) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि, पृ. 276-77 (ख) आवश्यक चूर्णि; जिनदास: पृ. 283 (ग) विशेषावश्यक भाष्य; गा. 1909 (घ) महावीर चरियं ( नेमिचन्द्र ) : 1055-59 (क) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि, पृ. 277
(ख) आवश्यक चूर्णि; जिनदास: पृ.
(ग) त्रिषष्टि श्लाका पु. चा; पुस्तक 7: पर्व 10, पृ. 551 यहां पर कालाय के स्थान पर कोल्लाक सन्निवेश लिखा है ।