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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 133 बन गया। उसका अपने वनखण्ड पर अत्यधिक ममत्व था। इसलिए दिन-रात वनखण्ड में चक्कर लगाता रहता था। किसी को भी उस बनखण्ड में से फल, पुष्प, पत्र आदि लेने नहीं देता था। कदाचित कोई वन में से सडा-गला फल-फूल, पत्ता ग्रहण करता तो उसको लाठी या देले से मारता था। यहां तक कि स्वयं के आश्रम में रहने वाले तापसों को भी फलादि ग्रहण नहीं करने देता था। तब वे तापस व्यथित होकर आश्रम से इधर-उधर भाग गये और चण्डकौशिक ही अब उस वाटिका का मालिक बन गया।
एक दिन चण्डकौशिक वाटिका के काम से बाहर चला गया। उसी समय श्वेताम्बिका नगरी से कितने ही राजकुमार शीघ्र आये और चण्डकौशिक के उस वनखण्ड को नष्ट-भ्रष्ट करने लगे। जव चण्डकौशिक कार्य सम्पन्न कर पुनः लौटा तो एक ग्वाले ने कहा, "चण्डकौशिक! अभी तुम नहीं थे तो तुम्हारे अभाव में तुम्हारे वनखण्ड को कोई नष्ट-भ्रष्ट कर रहा था। यह श्रवण करते ही वह क्रोध से आग-बबूला होकर तीक्ष्ण धारवाला कुल्हाड़ा लेकर दौडा आया। उसे वेग से आता देखकर कोई राजकुमार चाज पक्षी की तरह. कोई अन्य पक्षियों की तरह बर्ड वेग से वहां से भाग गये और कौशिक वेग से दौड़ता हुआ एक खर्ड में गिर पडा और स्वयं द्वारा फेंके उस तीक्ष्ण कुल्लास से मस्तक विदीर्ण हो गया और अपने कर्मविपाक से मृत्यु को प्राप्त कर इसी वन में दृष्टिविष सर्प बन गया। वह तीवानुवन्धी क्रोध भवान्तर में भी साथ लाता है। इस नियम से यहां भी वह प्रचण्ड क्रोधी बन गया था। वह भी अपने उस आश्रम की भूमि में किसी को घुसने तक नहीं देता था।