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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर भी नहीं है, इसलिए आप इधर मत पधारिये " ।" ग्वाले की बात श्रवण करके भी प्रभु मौन रहे क्योंकि वे जानते थे कि दृष्टिविष कौन है? वे अपने ज्ञान में देख रहे थे कि वह दृष्टिविष अभव्य नहीं अपितु भव्य जीव है।" वह सर्प पूर्वजन्म में तपस्वी साधक था। एक बार वह पारणे के लिए उपाश्रय से बाहर गया। उसके पैर के नीचे एक मेंढ़की आ गयी । एक छोटा साधु उनके साथ था । तपस्वी साधक को पता नहीं चला कि उसके पैर के नीचे कुछ आया है। लेकिन क्षुल्लक साधु का ध्यान चला गया। उसने तपस्वी साधक को ध्यान दिलाया कि, "देखिए गुरुदेव, आपके पैर के नीचे मेंढ़की आकर मर गयी है।" तपस्वी साधु को क्रोध आया। सोचा, मेरे पैर के नीचे मरी भी नहीं और उल्टा मुझे कह रहा है। तब तपस्वी साधु ने एक और मेंढ़की मरी हुई थी, उसकी ओर क्षुल्लक का ध्यानाकर्षण करते हुए व्यंग्यात्मक भाषा में कहा, "देखो, यह मेंढ़की मैंने मारी है ?" क्षुल्लक साधु तपस्वी साधक को क्रोधाविष्ट देखकर मौन रहा। सोचा, गुरुदेव प्रतिक्रमण के समय जब आलोचना करेंगे तब इसके पश्चात् स्वयं ही प्रायश्चित्त ग्रहण कर लेंगे । लेकिन उन तपस्वी साधु ने सायंकाल उसकी आलोचना नहीं की, तब क्षुल्लक साधु ने सोचा कि ये आलोचना करना भूल गये हैं, तो मैं इनको याद दिला देता हूं। यह सोचकर उस क्षुल्लक साधु ने तपस्वी साधु से कहा, "आर्य! क्या आप मेंढ़की की आलोचना करना भूल गये?" उसे श्रवण कर तपस्वी साधु के क्रोध कषाय का उदय हुआ और क्रोधावेश में वह उस क्षुल्लक साधु को मारने दौड़े। बीच में खम्भा दिखाई न देने से खंभे से टकराये और मस्तक पर चोट लगने से वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गये ।
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वह साधक जीवन की विराधना करने से ज्योतिष्क देव में उत्पन्न हुआ" । वहां से आयुष्य पूर्णकर कनकखल (कनखल) नामक स्थान में पांच सौ तपस्वियों के कुलपति की कुलपत्नी से कौशिक नामक पुत्र रूप में पैदा हुआ। वहां दूसरे तापस भी कौशिक गोत्र वाले थे। यह कोशिक धीरे-धीरे बडा होने लगा । इसका स्वभाव क्रोधी होने से उसे यहां के तापस चंडकौशिक कहने लगे" । चण्डकौशिक के पिता कुलपतिजी मृत्यु को प्राप्त हुए तब चण्डकौशिक आश्रम का कुलपति