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अपरिचम तीर्थकर महावीर -- 131
वाचाला ग्राम दो विभागों में विभाजित था। उत्तर वाचाला और दक्षिण वाचाला। इसका कारण यह था कि वाचाला के बीच में सुवर्णकूला और रूपकूला नामक दो नदियां बहती थीं। प्रभु दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला में सुवर्णकूला के तट की ओर जा रहे थे। वहां सुवर्णकूला के तट पर प्रभु का देवदूष्य वस्त्र कांटों में उलझ गया। प्रभु ने मुडकर देखा कि कहीं वस्त्र अयोग्य स्थंडिल भूमि में तो नहीं गिरा। लेकिन देखा कि वह योग्य भूमि में ही गिरा है। कांटों में वरत्र गिरने से शिष्यों को वस्त्र सुलभता से मिलेंगे, यह जानकर प्रभु ने वस्त्र को वहीं वोसिरा दिया और वे आगे बढ़ते गये।"
प्रभु महावीर वायुवेग से निरन्तर विहार करते हुए मार्ग को पार कर रहे थे। वे दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला की ओर जा रहे थे। दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला जाने के दो मार्ग थे। एक मार्ग सीधा था लेकिन सीधा होने पर भी विकट, भयावह और संकटापन्न था। दूसरा मार्ग टंदा मार्ग था लेकिन वह भयमुक्त मार्ग था। इन दोनों मागों में से प्रभु महावीर, जो उपसर्ग-परीपहों को आमंत्रण देकर झेलने का साहस करते थे, उन्होंने कंटककीर्ण पथ का चयन किया और कनखल आश्रम की तरफ अपने कदम गतिमान किये।
वायु की तरह अप्रतिवद्ध विहारी प्रभु महावीर जब कनखल आश्रम की ओर प्रस्थान करते हैं तो मार्ग में उन्हें एक ग्वाला मिलता है। ग्वाला प्रमु को कनखल की ओर जाते हुए देखकर चिन्तित हो उठता है. सोचता है आहा ये संन्यासी इस मार्ग से जा रहे है। शायद इन्हें आगे आने वाले काष्टों का पता नहीं। यदि यह इस मार्ग से जायेंगे तर पता नहीं उनके प्राण पखेरू भी रहेंगे या नही? अतः मैं इन्हें इस मार्ग में आने वाले कष्टों की जानकारी दे देता हूँ! ऐसा चिन्तन कर व्ह ग्वाला के पास जाता है और निदेदन करता है- “दद आप