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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 134 बढ़ते-बढ़ते ज्यों ही प्रभु ने जीर्ण अरण्य में प्रवेश किया, त्यों ही जीर्ण-शीर्ण शुष्क वृक्ष, जो चण्डकौशिक की विषैली दृष्टि से मुरझा गये थे, वे हरे-भरे होने लगे। चारों ओर का वातावरण मनमोहक बन गया। प्रभु वहां आकर यज्ञ मण्डप में रुके और नेत्रों को स्थिर करके कायोत्सर्ग करके खड़े रहे। प्रभु वहां पधारे उससे कुछ समय पूर्व ही वह दृष्टिविष सर्प मुंह से लपलपाती जीभ बाहर निकालकर क्रोध से नेत्र लाल कर उस अरण्य का स्वामी बना हुआ बांबी से बाहर निकलकर घूमने निकला'" । वह घूमता हुआ, जहां प्रभु महावीर ध्यानस्थ खड़े थे, वहां पहुंच गया। जैसे ही भगवान को दूर से देखा, चिन्तन किया, ओह! मेरे स्थान पर यह मरने को उद्यत कौन आया है और आकर खड़ा भी हो गया है। अभी इसको ठिकाने लगाता हूं। अभी भस्म कर दूंगा तो सारा खेल खतम हो जायेगा। ऐसा चिन्तन कर क्रोध से आगबबूला बनकर अपने फन फैलाकर भयंकर विष छोड़ता हुआ दृष्टि से प्रभु को निहारने लगा जैसे प्रज्वलित उल्कापिण्ड आकाश से गिरता है, वैसे ही विषैली दृष्टि से प्रभु पर विष फेंकता है लेकिन परम धैर्यशाली प्रभु उसे समभाव से सहन करते हुए तनिक भी विचलित नहीं होते हैं। तब चण्डकौशिक ने चिन्तन किया कि इस दृष्टि से तो इस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ अब और सूर्य जैसी प्रचण्ड दृष्टि इस पर डालूंगा तो यह अभी झुलस जायेगा, ऐसा चिन्तन कर प्रचण्ड विषैली दृष्टि प्रभु पर डाली लेकिन अतिशयधारी महावीर ने उस ज्वाला को जलधारा मान कर सहन कर लिया।
चण्डकौशिक ने देखा, दृष्टि का इस पर कोई प्रभाव नहीं। अब तो ऐसा तीक्ष्ण डंक मारता हूं कि यह हाय-हाय करता हुआ यहीं मरण को प्राप्त हो जायेगा। ऐसा चिन्तन कर प्रभु के डंक लगाया तो गाय के दूध जैसी रुधिर धारा निकली। दूसरी, तीसरी बार डंक लगाया तो वही श्वेत रुधिर धारा" | सोचा, जहां भी डंक लगा रहा हूं जहर फैलता नहीं अपितु श्वेत रक्त निकल रहा है, यह क्या है? बार-बार डंक लगाने पर भी जब जहर नहीं फैला अपितु श्वेत रुधिर निकला तो आश्चर्यचकित होकर, बड़ा ही संतप्त होकर प्रभु को देखने लगा। प्रभु के सौम्य मुखमण्डल को देखकर स्तब्ध हो गया तो भगवान् ने कहा,