________________
7.
8.
9.
अपश्चिम तीर्थंकर महावीर
(क) आवश्यक चूर्णि; जिनदास गणि महत्तर कृत; पृ. 270 तंमि अंतरे सिद्धत्यो सामिस्स मातुत्थितापुत्तो बालतवोकम्मेणं वाणमंतरो जावेल्लओ, सो आगतो,
―
(ख) आवश्यक चूर्णि, मलयगिरि; पृ. 267
(क) आवश्यक चूर्णि, जिनदास; पृ. 270 (ख) समवायांग
124
ताहे
सक्केण सिद्धत्यो भणितो - एस तव णीयल्लओ पुणोय मम वयणं, सामिस्स जो वरं मारणंतियं उवसग्गं करेति तं वारेहि, एवमस्तुतेण पडिसुतं, सक्को पडिगतो ।
(ग) विशेषावश्यक भाष्य; 1893
(घ) त्रिषष्टि श्लाका पुस्तक 7; पर्व 10; पृ. 32
यहां यह ज्ञातव्य है कि सभी तीर्थंकरों ने बेले की तपश्चर्यापूर्वक ली। ऋषभदेव भगवान् ने एक वर्ष पश्चात् गन्ने के रस
दीक्षा
से पारणा किया और शेष 23 तीर्थंकरों ने खीर से पारणा किया जैसा कि समवायांग में कहा है :
"संवच्छरेण मिक्खा, खोयलद्वाउसभेण लोगणाहेण सेसेहि वीयदिवसे लद्वाओ पढम - मिक्खाओ, उसभस्स पढममिक्खा खोयरसो आसि लोगणाहगस्स, सेसाणं परभण्णं अयियरस सोवमं आसी ।" दिव्य का तात्पर्य है देवों द्वारा किया गया। पांच दिव्य इस प्रकार हैं
1. वसुधारा अर्थात् सुवर्ण वृष्टि । देवों द्वारा साढे बारह करोड़ सौनेया की वर्षा को यहां वसुधारा कहा है।
2. पंचवर्ण ( कृष्ण, नील, पीत, श्वेत और रक्त ) वाले पुष्पों की वर्षा । ये पुष्प वैक्रियलब्धिजन्य होते हैं । इसलिए ये अचित ही होते हैं।
3. चेलोत्क्षेप - चेल-वस्त्र, उत्क्षेप - फेंकना । अर्थात् वस्त्रों को आकाश में फेंकना ।
4. देवदुन्दुभि – हर्षान्वित देवदुन्दुभि बजाना ।
5. अहोदान- आश्चर्य उत्पन्न करने वाला दान । अहोदान की संज्ञा देना ।
उद्धृत - विपाकसूत्र; श्री ज्ञानमुनिजी जैन शास्त्रमाला कार्यालय, लुधियाना: वि. सं. 2010; प्रथमावृत्ति; पृ. 635