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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 112 इस प्रकार भीषण उपसर्गों को प्रथम आठ महीनों में निरन्तर सहन करते हुए भगवन प्रथम वर्षावास करने के लिए मोराक सन्निवेश में पधारे।" मोराक पधारने पर कुलपति ने भगवान का स्वागत किया और वर्षावास करने हेतु एक पर्णकुटि प्रदान की।
वातानुकूलित (ऋतु अनुकूल) महलों में रहने वाले राजकुमार वर्धमान अब प्रभु महावीर बनकर एक झोंपड़ी में प्रथम वर्षावास हेतु पधार गये हैं। कुलपति से आज्ञा प्राप्त कर प्रभु उसी पर्णकुटी में ध्यानस्थ होकर आत्मावलोकन कर रहे थे। वर्षा ऋतु का समय था लेकिन प्रकृति ने अपना रुतबा बदल रखा था। वर्षा की कमी से घासादि सूख रहे थे। पशु आदि को पर्याप्त चारा नहीं मिलने के कारण भूख से व्याकुल पशु इधर-उधर घूम रहे थे। जहां भी कहीं थोड़ा-सा खाने को मिलता, पशु झट वहीं लपक कर चले जाते और खाने लग जाते थे। आश्रम में रहने वाली गायों का भी यही हाल था। क्षुधा से पीड़ित गायें जैसे ही आश्रम की अन्य कुटिया की घास खाती, तापस लोग उन्हें भगा देते। भूख से व्याकुल गायें भी इधर-उधर जाती हुई, जहां भगवान ठहरे थे उसी पर्णकुटी के पास पहुंचीं। वहीं घास खाने लगीं। भगवान तो परम दयालु थे, अनुकम्पा से उनका हृदय करुणा बना हुआ था। क्षुधा शांत करती हुई गायों को रोकने की मन में भी भावना नहीं हुई। परिणामस्वरूप गायें पर्णकुटी खाने लगी और उसे क्षत-विक्षत कर दिया।
अन्य तापसों ने प्रभु की इस चर्या को देखा तो हतप्रभ रह गये। वे आपस में बातें करने लगे- कुलपित ने कैसे आलसी कुमार को यहां रखा है। वो अपने पर्णकुटी की रक्षा भी नहीं कर सकता तब अन्यों की रक्षा की बात ही क्या? चलो कुलपति से जाकर सारी बात निवेदन करते हैं। सभी कुलपति के पास जाते हैं और गायों द्वारा पर्णकुटि खाने की बात कहते हैं। कुलपति को मन में क्रोध आता है। चिन्तन करते हैं, ऐसा आलस्य किस काम का? ऐसे ही यदि गायों द्वारा पर्णकुटी खाई जाती रही तो न जाने कितने कुटीर एक वर्षावास में बनाने पड़ जायेंगे। अतः कुमार को उपालम्भ देना ही ठीक है। यों चिन्तन कर कुलपति प्रभु के पास पहुंचते हैं, उन्हें ध्यानस्थ देखकर कहते हैं