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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर 106 आकृष्ट बनी युवतियां प्रभु से काम-भोगों की याचना कर रही हैं लेकिन प्रभु अनुकूल परीषह को समभावपूर्वक सहन करते हैं। महापुरुष भीतर से बाहर की यात्रा करने में पुरुषार्थ नहीं करते । वे तो अपनी शक्ति का सदुपयोग आत्मजागरण में करते हैं ।
कंटकाकीर्ण, ऊबड़-खाबड़ मार्ग, जिन पर कई नुकीले कंकर, पत्थर, कांटे! उनके वे सुकामल पांव! अहो ! बिना जूते कैसे दर्द सहन कर पायेंगे? कहां उन्हें ठहरने का स्थान मिलेगा? कौन परिचर्या करेगा ? मार्ग में कौन साथ चलेगा? हा ! अर्द्धांगिनी बनकर भी मैं अभागिनी बन गयी। कुछ भी सेवा न कर पाई ! ऐसा चिन्तन करते-करते यशोदा के अविरल अश्रुधारा बहने लगती है ।
यशोदा महलों में बैठी वीर प्रभु के ध्यान में निमग्न है और भगवान् महावीर क्षत्रियकुण्ड से विहार कर के प्रहर दिन अवशेष रहते कूर्मारग्राम' पधार गये, जिसका वर्तमान नाम कामन छपरा है | वहां बेले की तपश्चर्या में एक वृक्ष के नीचे जाकर खड़े हो गये। हाथ ऊपर करके स्थाणु की तरह अवस्थित रहकर प्रतिमा धारण कर ली। बाहर से भीतर की यात्रा प्रारम्भ है। संयम विपरीत वातावरण में भी अपने शुभ अध्यवसायों में रमण करते हुए लीन बने रहते हैं । उसी आत्मसाध् ना में संलग्नता के समय में एक ग्वाला अपने बैलों को लेकर वहां पहुंचता है। आस-पास में घास देखकर बैल वहां चरने लगे । ग्वाला चिन्तन करता है कि बैल यहां चर रहे हैं और मुझे समीपवर्ती ग्राम में गायों को दूहने जाना है । तब यह व्यक्ति, जो वृक्ष के नीचे खड़ा है, इसे बैलों की निगरानी का कार्य सम्हलाकर मैं गाय दूहकर पुनः आ जाऊँगा तब बैलों को लौटा ले जाऊँगा । यह चिन्तनकर ग्वाला भगवान से कहता है- अरे भाई! ये मेरे बैल यहां घास चर रहे हैं, तुम इनका खयाल रखना। मैं समीपवर्ती गांव में जाकर, गाय दूहकर पुनः आता हूं, तब बैलों को ले जाऊँगा । ध्यानस्थ प्रभु कुछ भी न बोले तब ग्वाले ने मौन को स्वीकृति मानकर वहां से प्रस्थान कर दिया ।
प्रभु तो अपनी आत्मसाधना में तल्लीन थे। अपने प्रशस्त अध्यवसायों से अशुभ कर्मों के वृन्द निर्जरित करने वीर्यरत थे। ग्वाला गायें दोहनकर पुनः लौटा। देखा, भगवान अकेले खड़े हैं, बैल नहीं हैं।