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अपश्चिम तीर्थकर महावीर 105
साधनाकाल का प्रथम वर्ष एकादशम् अध्याय
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राजमहलों के राजसी सुखों में पलने वाले सुकुमाल देही, जिनको देखने के लिए सहस्त्रों नेत्र निरन्तर उत्सुक रहते थे, जिनकी वाणी सुनने के लिए कान तत्परशील रहते थे, जो सबके नयन सितारे थे, वे राजकुमार वर्धमान अब 'महावीर स्वामी' बन गये, मुनि हो गये । राजकुमार भिक्षुक के कंटकाकीर्ण पथ पर चलने लगे।
वर्धमान तो भिक्षुक बन गये किन्तु यशोदा का सुकुमाल हृदय तो स्वामी के लिए बेचैन हो रहा है, चिन्तन की गहराइयों में डूबा भावतरंगों को प्रवाहित कर रहा है । प्रासाद के एकान्त में मलिनवदना यशोदा डूबी है, राजकुमार वर्धमान के परीषहों की धारा में । अहा ! हा! क्या होता होगा। स्वामी! वे तो चले गये...... सब-कुछ त्याग दिया. लेकिन........ ......... विरक्त न बन पाई। उनका वह
सुकोमल शरीर..
कैसे सहन कर पायेगा सर्दी - गरमी ! ओह ! उनको वहां कैसा भोजन मिलेगा? कौन खयाल रखेगा कि भोजन किया या नहीं? पानी पीया या नहीं? भोजन करने के लिए पात्र भी नहीं..... कितनी कठोर चर्या ! अब कहां गरम भोजन! ठण्डा, बासी जो
मिलेगा वही खाना होगा । शरीर पर भी अल्प वस्त्र हैं। डांस-मच्छर कितने परेशान करेंगे। एक डांस भी काट डाले तो कई देर खुजाल आती रहती है। वहां कौन पंखा झलेगा? भ्रमर, कीट, मच्छरादिकृत भीषण उपसर्गों को कैसे सहन करेंगे? कहां-कहां जायेंगे?
आत्मजागरण के क्षणों में शरीर का व्युत्सर्ग कर स्वयं को खोज रहे हैं। ऐसे प्रशान्त वातावरण में प्रभु के गात्र से चन्दनादि सुगन्धित द्रव्य की भीनी-भीनी महक, वायुमण्डल में प्रसरित वातावरण को मनमोहक बना रही है । भगवान् के श्वास की सौम्य सुगन्ध वातावरण को सुगन्धित गन्ध-वाटिका बना रही है । उस सुगंधित वातावरण से आकृष्ट होकर भ्रमर, पतंगे, कीट आदि प्रभु के शरीर के चारों तरफ गुनगुनाहट करते हुए मंडरा रहे हैं और पास आकर डंक लगा रहे हैं। उनके सुडौल शरीर पर घाव कर रहे हैं। प्रभु समभाव से सहन कर रहे हैं । उसी एकान्त वातावरण में प्रभु के आकर्षक मुख, रूप-लावण्य से