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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 102 रहे थे। कई देव शंख बजा रहे थे। कई चक्र धारण कर शिविका के आगे चल रहे थे। कई हल धारण किये चल रहे थे। कई मधुर वाणी बोलते हुए चल रहे थे। इन सभी से घिरे हुए भगवान को पालकी में विराजे देखकर भगवान् के कुल के वृद्धजन इष्ट शब्दों से भगवान् का अभिनन्दन करते, हुए भगवान् की स्तुति करते हुए, इस प्रकार कहते हैं- हे नन्द! आपकी जय हो! विजय हो! हे भद्र! आपकी जय हो! जय हो! आपका कल्याण हो! इन्द्रियजयी बन श्रमणत्व का पालन करो। शुक्ल ध्यान ध्याता बनकर, अष्टकर्म जीतकर, कैवल्य ज्योति का वरण करो। परीषह सेना को पराजित कर मुक्ति का वरण करो। अनेक वर्षों तक उत्तम चारित्र का पालन कर निर्विघ्न यात्रा करो। हे क्षत्रिय! तुम्हारी जय हो! जय हो! इस प्रकार कहकर लोग जय-जयकार करने लगे।
हजारों-हजार लोग भगवान की प्रशंसा करते हुए, उनकी यश-गाथा गाते हुए चल रहे थे। क्षत्रियकुण्ड की छतों पर, पथ पर, खिड़कियों से, झरोखों से, अनेक लोग भगवान् को देखने के लिये उत्सुक हो खड़े थे। ज्योंही भगवान् दिखते, उन्हें प्रणाम करते हुए अपने को गौरवान्वित मान रहे थे। प्रभु भी दाहिने हाथ से हजारों नर-नारियों के प्रणाम को स्वीकार कर रहे थे। कोई वाद्य बजा रहे थे, कोई नाटक कर रहे थे, कोई शंखनाद कर रहे थे। इसी प्रकार ढोल, भेरी, झालर, खरमुखी, हुडुक्क, दुन्दुभि आदि वाद्यों के मधुर निनाद के साथ भगवान् कुण्डलपुर के बीचोबीच निकलते हैं और ज्ञातवनखण्ड उद्यान में उत्तम अशोक वृक्ष के पास पहुंचते हैं। वहीं पालकी नीचे रखते हैं। भगवान् पालकी से नीचे उतरते हैं। उतरकर हार, पुष्पमाला, अंगूठियां आदि अलंकार स्वयमेव उतारते हैं। तत्काल वैश्रमण देव घुटने टेककर भगवान के चरणों में झुकता है तथा भक्तिपूर्वक उन सभी आभूषणों को हंसलक्षण सदृश श्वेत वर्ण वाले वस्त्र में ग्रहण करता है।
तत्पश्चात् भगवान् पंचमुष्टि लोच करते हैं। शक्रेन्द्र उन बालों को हीरे के थाल में ग्रहण करता है। तदनन्तर भगवान आपकी अनुमति है, यों कहकर उन केशों को क्षीरसमुद्र में प्रवाहित कर देता है।
भगवान एक मुट्ठी से दाढ़ी का और चार मुट्ठी से सिर का लोच