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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 101 मालाओं से भगवान् के शरीर को अलंकृत किया। तत्पश्चात् ग्रंथिम, बेष्टिम, पूरिम और संघातिम, चार प्रकार की पुष्पमालाओं से कल्पवृक्ष की तरह प्रभु के शरीर को विभूषित किया।
भगवान को सुसज्जित करने के पश्चात् शक्रेन्द्र ने पुनः वैक्रिय समुद्घात किया। वैक्रिय समुद्घात करके तत्काल चन्द्रप्रभा नामक एक विराट सहस्रवाहिनी शिविका का निर्माण किया। उस शिविका पर ईहामृग, वृषभ, अश्व, नर, मगर, पक्षिगण, बन्दर, हाथी, रुरु, सरभ, चमरी गाय, शार्दूल सिंह आदि अनेक पशु-पक्षियों के चित्र एवं अनेक वनलताओं के चित्र अंकित थे। पशु-पक्षियों के अतिरिक्त अनेक विद्याधरों के जोड़े भी यंत्रयोग से अंकित किये गये थे। सूर्य से भी अत्यन्त देदीप्यमान वह शिविका मोती-मुक्ताजाल, लम्बी लटकती मौक्तिक मालाओं से सुशोभित थी। अनेक मणियों, घण्टाओं एवं पताकाओं से परिमण्डित शुभ, सुन्दर, कमनीय, दर्शनीय और अत्यन्त मनमोहक थी। उस शिविका के मध्य श्रेष्ठ रत्न राशि से सुसज्जित पादपीठ से युक्त महामूल्यवान एक सिंहासन बनाया गया। तत्पश्चात् जहां भगवान महावीर थे, वहां शिविका लाई गयी। शिविका स्थित सिंहासन पर भगवान् महावीर, जो बेले की तपश्चर्या से युक्त शुभ लेश्याओं से विशुद्ध थे, उनको बिठलाया। इस प्रकार हेमन्त ऋतु के प्रथम मास और प्रथम पक्ष (मृगसर कृष्णा दशमी) के दिन प्रथम प्रहर व्यतीत होने पर सुव्रत दिन, विजय मुहूर्त में भगवान शिविका में विराजे।
। भगवान के शिविका में विराजने पर उनके दोनों ओर दो इन्द्र- शक्रेन्द्र एवं ईशानेन्द्र मणि-रत्नादि से चित्रित डंडे वाले चंवर भगवान पर डुलाने लगे।
सर्वप्रथम मनुष्यों ने हर्षवश शिविका उठाई। तत्पश्चात् सुर, असुर, गरुड़ और नगेन्द्र आदि देव शिविका उठाकर चलने लगे। शिविका को पूर्व दिशा की ओर से वैमानिक देव उठाकर चलते हैं, दक्षिण दिशा की ओर से असुरकुमार उठाते हैं। पश्चिम दिशा की ओर से गरुड़देव तथा उत्तर दिशा की ओर से नागकुमार देव उठाकर चलते हैं। यह दृश्य बड़ा अभिराम था। उस पालकी के पीछे देव और मनुष्यों के झुण्ड-के-झुण्ड चल रहे थे। देवसमूह भी हषोल्लासपूर्वक कार्य कर