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__ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 100 जाते हैं और निवेदन करते हैं- विज्ञवरों! आपके कथनानुसार गृहवास में रहकर मैंने दो वर्ष व्यतीत कर दिये हैं। अब मैं आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर संयम ग्रहण करना चाहता हूं।
नन्दीवर्धन, सजल नयनों से निहारते हुए- अब तो अनुज्ञा देनी ही होगी। कुमार वर्धमान! इच्छा नहीं होते हुए भी वचनबद्ध होने से तुम्हारी दीक्षा की तैयारी करवाता हूं।
__कुमार वर्धमान लौट जाते हैं। नन्दीवर्धन दीक्षा की तैयारी करवा रहे हैं।
इधर सम्पूर्ण देवलोक में भगवान् के अभिनिष्क्रमण को लेकर हलचल मच गयी है। भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक देव-देवियां अपनी-अपनी ऋद्धि और परिवारसहित तिर्यक लोक में असंख्य द्वीप-समुद्रों का उल्लंघन करते हुए क्षत्रियकुण्ड में आकर अपने विमानों से उतर रहे हैं। स्वयं देवराज इन्द्र- शक्रेन्द्र भी अपनी ऋद्धि और परिवारसहित विमान से उतरते हैं। उतर कर क्षत्रियकुण्ड के एकान्त स्थान में जाते हैं। वहां जाकर वैक्रिय समुद्घात करते हैं। वैक्रिय समुद्घात करके शक्रेन्द्र ने एक मणिरत्न-चित्रित, शुभ, मनोहर, विशाल देवच्छंदक - भगवान के लिये विशिष्ट स्थान का निर्माण किया। निर्माण करके उसके मध्य में पादपीठ सहित भव्य सिंहासन की विकुर्वणा (रचना) की। सिंहासन का निर्माण करने के बाद जहां कुमार वर्धमान थे, वहां आया। वहां आकर भगवान की तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की। तत्पश्चात् वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके भगवान् महावीर को उस देवच्छन्दक स्थान पर लाया। तत्पश्चात् भगवान् को सिंहासन पर बिठाया। सिंहासन पर बिठाकर भगवान् के शरीर पर शतपाक, सहस्रपाक तेल की मालिश की। सुगन्धित तेलों का उबटन करके निर्मल जल से भगवान् को स्नान करवाया। स्नान करवाकर एक लाख के मूल्य वाले वस्त्र को तीन पट लपेटकर शरीर पर सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया। तत्पश्चात् अत्यन्त बारीक, श्वेत, स्वर्णतार परिमंडित, बेशकीमती वस्त्र युगल को पहनाया। तत्पश्चात् हार, अर्द्धहार एवं वक्षस्थल पर सुन्दर आभूषण, एकावली, लटकती मालाएं, कटिसूत्र, मुकुट एवं रत्नों की