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अपश्चिम तीर्थकर महावीर
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करते हैं। 10 तत्पश्चात् बेले की तपश्चर्या से उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र आते ही एक देवदूष्य वस्त्र लेकर अकेले ही मुण्डित होकर सिद्धों एवं संयतियों को नमस्कार करके सम्पूर्ण सावद्य योगों का तीन करण, तीन योग से त्यागकर, अकेले ही मुंडित होकर आगार का परित्याग कर अणगार धर्म को स्वीकार करते हैं ।" सामायिक चारित्र ग्रहण करते ही भगवान को मनःपर्यायज्ञान प्राप्त हो जाता है। उसी समय भगवान यह प्रतिज्ञा ग्रहण करते हैं कि जब तक मुझे कैवल्यज्ञान नहीं हो जाये, तब
तक
1. शरीर की शुश्रूषा (सार सम्हाल) नहीं करूंगा।
2. देव, मानव और तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करूंगा।
3. मन में क्षमाभाव रखूंगा 112
इस प्रकार की प्रतिज्ञा ग्रहण कर भगवान् वहां से कूमारग्राम की ओर प्रस्थान करते हैं । जन-समूह एकटक से टक-टकी लगाकर जाते हुए भगवान् को देखता है। जब प्रभु दृष्टि से ओझल हो जाते हैं तो दर्शकों के नेत्रों से आसुंओं की झड़ियां बहने लगती हैं। सजल नेत्रों से लोग अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान करने हेतु उद्यत बनते हैं ।
संदर्भ: दीक्षा अध्ययन अध्याय 10
स्थानांग सूत्र; वही; स्थान 3
Uttaradhyayana Sutra; K. C. Lalwani; Lesson-23 त्रिषष्टि श्लाका पुरुष चारित्र; वही, पृ. 27
आवश्यक सूत्र: पूर्वभाग: श्री भद्रबाहुकृत नियुक्ति चूर्णि, श्री जिनदासगणि महत्तर कृत चूर्णि युक्तः प्रका. श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम सन् 1928; पृ. 242 (क) आवश्यक सूत्र: पूर्वभाग: श्री भद्रबाहुकृत नियुक्ति चूर्णि, श्री जिनदासगणि महत्तर कृत चूर्णि युक्त; वही; पृ. 249
(ख) त्रिषष्टि श्लाका पुरुष चारित्र; पृ.27
त्रिषष्टि श्लाका पुरुष चारित्र; पृ.27
आचारांग : द्वितीय श्रुत स्कन्धः वही; अध्ययन 15
(क) आचारांग वही; अध्ययन 15
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