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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 96 प्रयास किया। उनके धर्मकार्यो में कभी बाधक नहीं बने, फिर आर्तध्यान क्यों? आप भी ऐसा करेंगे तब राज्य का क्या होगा?
नन्दीवर्धन- वर्धमान, राज्य-सत्ता तो तुम्हें सम्हालनी होगी।
वर्धमान- नहीं........ नहीं! राज्य करने की मेरी कतई भावना नहीं है। मैं तो आत्मराज्य का अभिलाषी हूं।
नन्दीवर्धन- वर्धमान! आत्मराज्य बाद में करना, पहले यह राज्य तो करो।
वर्धमान- नहीं भैया! यह राज्य तो आपको ही करना है। आपको तो शोक का परित्याग कर राज्य-सत्ता को सम्हालना होगा।
जब राजकुमार वर्धमान अपने बड़े भैया को समझा रहे थे, तभी मंत्री का प्रवेश होता है।
राजकुमार वर्धमान मंत्री से कहते हैं- मंत्री प्रवर, राज्याभिषेक की तैयारी करवाइए । भैया का राज्याभिषेक करना है।
मंत्री- जो आज्ञा! कहकर राज्याभिषेक की तैयारी करता है। बड़े उल्लासमय वातावरण में नन्दीवर्धन का राज्याभिषेक सम्पन्न होता है।
नन्दीवर्धन तो राज्य-सत्ता को सम्हाल रहे हैं लेकिन राजकुमार वर्धमान, वे कर्म-पिंजर से उन्मुक्त बनने हेतु समुत्सुक हैं। बन्धन तोड़कर निर्वन्ध यात्रा के प्रयाण की तैयारी है। आत्म-घर में निवास करने वाली आत्मा वाह्य घर के सींखचों में जकड़कर रहना नहीं चाहती। कुमार वर्धमान चिन्तन करते हैं- माता पिता का देहावसान हो चुका है, मेरी गर्भकाल में की गयी प्रतिज्ञा पूर्ण हो गयी कि माता-पिता के रहते दीक्षा नहीं लूंगा। अव अवसर आ गया कि मैं आत्मसाधना में निमग्न बनूं एतदर्थ आवश्यकता है कि मैं अपने बड़े भ्राता नन्दीवर्धन की आज्ञा प्राप्त करूं।
यह सोचकर कुमार नन्दीवर्धन के प्रासाद में गये। नन्दीवर्धन सिंहासन पर बैठे थे। अपने लघु भ्राता को देखकर आनन्द निमग्न बने-- ओह! बर्धमान! आज आपका आगमन! आओ! आओ!
कुमार वर्धमान पास बैठकर- और भैयाजी ठीक है? नयर्वन- हां कुमार, सब ठीक है। तुम कैसे हो?