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अपच तीर्थकर महावीर 95
दीक्षा अध्ययन
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दशम अध्याय
क्षत्रियकुण्ड नगर वीरान-सा लग रहा है। सबके चेहरे मुरझा रहे है। महाराजा सिद्धार्थ के देवलोक गमन के पश्चात् राजकीय कार्य विराम ले रहे हैं। स्वयं नन्दिवर्धन भी पितृमातृ शोक में निमग्न बने हैं। मातृ-पितृ वियोग संताप का कारण बन रहा है । प्रासाद में बैठे नन्दीवर्धन चिन्तन कर रहे हैं ।
कितना जबर्दस्त वात्सल्य था पिताश्री, माताश्री का ! जब भी उनके समीप पहुंचता, अपूर्व वात्सल्य से अनुप्राणित आशीर्वाद मिलता । उन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया। माता-पिता जन्मदाता ही नहीं, जीवनदाता, संस्कारदाता होते हैं। हृदय में धडकते वात्सल्य की सुन्दर धुन सुनाकर गर्भ से ही बच्चे को सुखमय वातावरण देने का स्तुत्य प्रयास करते हैं। उठना, बैठना, चलना, फिरना, बोलना आदि समस्त क्रियाएं सिखला कर प्रवीण करने का प्रयास करते हैं । कालाचार्य के पास पढ़ाकर निष्णात बनाते हैं। युवावय होने पर विवाह करते हैं । वृद्धावय में कई गुने अधिक वात्सल्य से पौत्र-पौत्रियों का दुलार करते हैं । ऐसी सन्तान की अहर्निश सेवा करने वाले माता-पिता होते हैं। मेरी माताश्री और पिताश्री ने भी जीवनपर्यन्त मेरी सेवा की, लेकिन मैं........कर्ज न चुका सका.. ..... ओह! मातुश्री ! पिताश्री ! आपका कर्ज इतना बड़ा' था कि चुकाने में जीवन भी थोडा पड गया। आंखों से अश्रु धारा बहती है। गंगा-यमुना की तरह निकलती हुई वह धारा कपोलों का संस्पर्श कर नीचे प्रवाहित होती है कि राजकुमार वर्धमान का आगमन होता है। कुमार वर्धमान भैया के नयनों से यह रही अश्रुधारा को देखकर.
अरे भैया! यह क्या कर रहे हो? वण अभी भी शोकसागर में निमग्न है जन-मरण सांसारिक जीवन के दो छोर है। उनके समाप्त हो जाने पर भी आत्मा अजर-अमर है। फिर आर्तध्यान क्यों कर रहे हो? नदीवर्धन- क्या नताके वर्धमान! उनके वात्सल्य के ऋण से उ