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तापस उसी वन में विषदृष्टि-सर्प बना। विषधर और भयंकर सर्प के भय से लोगों ने उधर जाना बन्द कर दिया।
एक बार परम प्रभु महावीर साधना करते-करते उस वन में जा निकले । लोगों ने उन्हें मना भी किया। पर अभय को भय क्या? श्रमण महावीर को विषदृष्टि चण्ड कौशिक नागराज ने ज्यों ही देखा, फुकार मारने लगा, विष को ज्वालाएं उगलने लगा। वीर प्रभु भी उसके बिल के पास ही अडिग और स्थिर होकर खड़े रहे। दोनों ओर से बहुत देर तक संघर्ष होता रहा। एक ओर से क्रोध रूपी महादानव रहरहकर विष की ज्वाला उगलता रहा और दूसरी ओर से छूटती रही क्षमा की अमृत पिचकारी। आखिर चण्ड कौशिक विष उगलते-उगलते थक गया और पराजित होकर वीर प्रभु के चरणों के पास लोटने लगा। प्रभु ने अपने क्षमा-अमृत से उसके विष की ज्वाला सदा के लिए शान्त कर दी। लोगों ने आश्चर्य से देखा कि अब विषदृष्टि सर्प के मुंह से विष के स्थान पर दूध की धारा बह रही है। धन्य हैं वीर प्रभु और धन्य है उनकी क्षमा! इसीलिए तो सम्पूर्ण विश्व क्षमावतार के रूप में उनका अभिनन्दन करता है। ___ उज्जैन के चातुर्मास की कथा भी भगवान महावीर के अनुपम शौर्य और वीरत्व का ही चित्र उपस्थित करती है । उन दिनों उज्जैन में बलि-प्रथा का बड़ा जोर था। महाकाल की पूजा में प्रायः पशुओं की बलि दी जाती थी। भगवान महावीर जब उज्जैन में अपना चातुर्मास व्यतीत करने लगे, तो श्मशानवासी भव नामक रुद्र के मन में कोप की ज्वाला भड़क