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________________ उस स्थान पर आया, जहां महावीर भगवान ध्यानस्थ थे। गोपाल ने बड़े विस्मय के साथ देखा कि उसके दोनों बैल भगवान के चरणों के पास बैठे हुए हैं । बस, फिर क्या था? उसके मन में क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। उसने सोचा, मैं तो रातभर इन बैलों के लिए जंगल में भटकता रहा, और यहां ये इस साधु के पास बैठे हुए हैं । अवश्य यह साधु पाखण्डी है। इसने जान-बूझकर ही मेरे साथ विश्वासघात किया है । मैं इसे इसके इस विश्वासघात का दण्ड दिए बिना न रहूंगा। यह सोचकर गोपाल ने भगवान महावीर पर प्रहार करने के लिए ज्योंही अपनी लाठी उठाई कि देवराज इन्द्र ने छद्म वेश में प्रकट होकर उसकी लाठी पकड़ ली और बोले-"मूर्ख, तू यह क्या अनर्थ कर रहा है ? क्या तू जानता नहीं यह कौन हैं ? यह तो राजकुमार वर्द्धमान हैं, जो अपना सर्वस्व त्यागकर लोक-कल्याण के लिए तप में संलग्न हैं।" गोपाल अज्ञानवश हुए अपने अपराध के लिए क्षमा मांगकर चला गया। पर इन्द्र ने श्रमण महावीर से कहा-"भन्ते, आपका साधना-काल लम्बा है। इस प्रकार के उपसर्ग और संकट आगे और भी अधिक आ सकते हैं। अतः आपकी परम पवित्र सेवा में मैं आपके निकट रहने की कामना करता हूं।" गोपाल का विरोध और इन्द्र का अनुरोध भगवान महावीर ने सुना तो, पर अभी तक वह अपने समाधि-भाव में ही स्थिर थे । समाघि खोलकर बोले-“इन्द्र, आज तक आत्मसाधकों के इतिहास में न कभी यह हुआ और न होगा, कि मुक्ति-मोक्ष या कैवल्य दूसरे के बल पर, दूसरे के श्रम और
SR No.010149
Book TitleAntim Tirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShakun Prakashan Delhi
PublisherShakun Prakashan Delhi
Publication Year1972
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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