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भगवान महावीर के पिता बहुत बड़े नृपति थे। उनके पास क्या नहीं था ? राज्य था, वैभव था, सेना थी, सेवक थे, सेविकाएं थीं, विलास था, आमोद-प्रमोद के साधन थे। बालक महावीर के आस-पास चारों ओर लौकिक सुखों का-भोगों का ही सतरंगा जाल था। पर क्या वह कभी उस जाल में फंसे? नहीं, अपने माता-पिता के लाड़ले पुत्र होते हुए भी उन्होंने कभी उन सुखों और भोगों की ओर देखा तक नहीं। वह सुखों और भोगों के बीच में उसी प्रकार रहे, जिस प्रकार पानी में कमल रहता है। कमल पानी में रहता हुआ भी जल को स्पर्श नहीं करता। ठीक यही हाल महावीर स्वामी का भी था। वह भी कमल की भांति सुखों और भोगों से पृथक् ही रहे।
एक विद्वान् लेखक ने महावीर स्वामी के बाल-जीवन का चित्रण इस प्रकार किया है-"बाल्यावस्था में ही महावीर स्वामी के हृदय में विरक्ति का पौधा अंकुरित हो उठा था। उन्हें ठाठ-बाट से अरुचि थी। दूसरों के दुखों को देखकर वह दुखी हो जाते थे। बलि दिए जाने वाले पशुओं की करुण चीत्कार से उनका हृदय चीत्कार कर उठता था।"
पर यह तो सत्य है ही कि वह एक राजकुमार थे। उन्हें आदर-सम्मान सब कुछ प्राप्त था। उन पर सबकी आंखें लगी रहती थीं। वह लक्ष-लक्ष मनुष्यों के प्यार, श्रद्धा और स्नेह के बीच में शनैः-शनैः वय की सीढ़ियां लांघने जा रहे थे। आखिर वह तरुण हुए, यौवन की कान्ति उनके अंग-अंग से फूट पड़ी। सात हाथ ऊंचा उनका शरीर, यौवन की अनुपम प्रभा से झिलमिला उठा। प्रजा उनके बलिष्ठ और कान्तिमय शरीर