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को देखती तो यह सोचकर अपने को धन्य मानने लगती कि एक दिन आएगा, जब यही अलौकिक महापुरुष उसके भाग्य का विधाता बनेगा । पर प्रजा को क्या मालूम कि उस अलौकिक महापुरुष का जन्म किसी एक प्रान्त के लिए नहीं, किसी एक देश के लिए नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व के प्राणी मात्र के कल्याण के लिए हुआ है ।
माता त्रिशलादेवी के मन का क्या कहना ? वह अपने अद्वितीय और अलौकिक बेटे के शरीर की तरुणाई और लुनाई देखकर लाख-लाख मन से उस पर बलिहारी जातीं । वह मन-ही-मन सोचतीं, क्या ही अच्छा होता, यदि वर्द्धमान का विवाह होता, और राजभवन में बहू का प्रवेश होता । आखिर उन्होंने महाराज सिद्धार्थ पर भी अपनी अभिलाषा प्रकट की । महाराज को भी इसमें क्या आपत्ति होती ? क्योंकि वह भी तो पिता थे । पिता होने के कारण उनके हृदय में भी तो अपने अनुपम बेटे के विवाह की मनोकामनाएं थीं ।
उन दिनों कलिंग देश के नृपति महाराज जितशत्रु कुण्डग्राम ससैन्य दल-बल पधारे हुए थे । उनके साथ उनकी पुत्री यशोदा भी थी । यशोदा रूप और गुण में अद्वितीय थी । यशोदा को देखकर, राजमाता देवी मुग्ध हो उठीं। उन्होंने निश्चय किया कि वह यशोदा के साथ ही अपने पुत्र का विवाह करेंगी । उन्होंने महाराज सिद्धार्थ की सहमति भी प्राप्त कर ली । पर अभी राजकुमार वर्द्धमान की सहमति प्राप्त करना तो शेष ही था। बिना उनकी सहमति प्राप्त किए हुए वह आगे कदम कैसे बढ़ा सकती थीं ?
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