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________________ विरक्ति का स्वर्ण-कमल भगवान महावीर जन्मजात वीतरागी थे। वह आत्मकल्याण एवं लोकहित के लिए संसार में अवतरित हुए थे। लोक-कल्याण ही उनका इष्ट था, लोक-कल्याण ही उनका लक्ष्य था। जीवन के प्रथम चरण से ही वह मानव-कल्याण के लिए संघर्ष करने लगे। संघर्ष करने लगे, पर किससे? क्या शत्रु से ? क्या शत्रु के सैनिकों से? हां, शत्रु से-प्रबल शत्रु से ? किन्तु उनका वह प्रबल शत्रु कौन था? क्या कोई शरीरधारी नृपति ? क्या किसी देश का कोई पराक्रमी शासक ? नहीं, उनका शत्रु तो था वह काम, जो मनुष्यों को अपने पंक में फंसाकर उसे मंगल की ओर जाने से रोकता है। उनके शत्रु के रूप में तो थी वे विषयवासनाएं, जो मनुष्य को अपनी सुरा पिलाकर उसे कर्तव्यच्युत कर देती हैं। महावीर वर्द्धमान बाल्यावस्था से ही उसी काम से, उन्हीं विषय-वासनाओं से युद्ध करने लगे, बड़े शौर्य के साथ उन्हें पीछे ढकेलने लगे।
SR No.010149
Book TitleAntim Tirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShakun Prakashan Delhi
PublisherShakun Prakashan Delhi
Publication Year1972
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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