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घर है। वह भोगने योग्य नहीं है। शरीर को माध्यम बनाकर तप करो। तप से ही अन्तःकरण पवित्र होता है। अन्तःकरण पवित्र होने से ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है।
२. जो इन्द्रियों और प्राणों के सुख के लिए तथा वासनाओं की संतृप्ति के लिए परिश्रम करता है, उसे हम श्रेयस्कर नहीं मानते; क्योंकि शरीर की समता भी आत्मा के लिए क्लेशदायक है।
३. विषयों की अभिलाषा ही अन्ध-कूप के समान है; अन्ध-कूप में जीव को पटकने वाली है।
४. अग्नि-होत्र में वह सुख नहीं है, जो आत्मयज्ञ में है।
५. हे पुत्रो, जो स्थावर और जंगम जीवों को भी मेरे समान ही समझता है, और कर्मावरण से भेद को पहचानता है, वही धर्म प्राप्त करता है। धर्म का मूल-तत्त्व सम-दर्शन है।
६. साधु जब तक आत्म-स्वरूप को नहीं जानता, तब तक वह कुछ नहीं जानता। वह कोरा अज्ञानी है। जब तक वह कर्मकाण्ड में फंसा रहता है, तब तक आत्मा और शरीर का संयोग छूटता नहीं है, और मन के द्वारा कर्मों का बंध भी रुकता नहीं
है।
७. जो सद्ज्ञान प्राप्त करके भी सदाचार का पालन नहीं करते, वे विद्वान् प्रमादी बन जाते हैं। मनुष्य अज्ञान-भाव से ही मैथुन-भाव में प्रवेश करता है और अनेक संतापों को प्राप्त करता है।
कहते हैं, बाहुबली ने भरत के अधीन रहना अस्वीकार कर दिया । उन दोनों का आपस में घोर युद्ध भी हुआ। उसी