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श्रीमद्भागवतकार ने भगवान ऋषभदेव का स्मरण इस प्रकार किया है - "हे परीक्षित, सम्पूर्ण लोक, देव, ब्राह्मण और गौ के परम गुरु भगवान ऋषभदेव का यह विशुद्ध चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया है । यह चरित्र मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है ।"
श्रीमद्भागवत में भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में और भी अत्यधिक ऊंचे विचार मिलते हैं । एक स्थान पर भगवान ऋषभदेव की अभ्यर्थना इस प्रकार की गई है - " ऋषभदेव आत्म-स्वभावी थे । अनर्थ परम्परा के पूर्ण त्यागी थे । वह केवल अपने ही आनन्द में लीन रहते थे तथा अपने ही स्वरूप में विचरण करते थे ।"
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एक दूसरे स्थान पर भगवान ऋषभदेव की चर्चा इस प्रकार की गई है - "ऋषभदेव साक्षात् ईश्वर थे । सर्व- समता रखते, सर्व प्राणियों से मित्र - भाव रखते और सब पर दया करते थे ।" भगवान ऋषभदेव के उपदेश बड़े मर्मस्पर्शी और प्रेरक हैं । भगवान के पुत्रों में जब भरत को सारा राज्य प्राप्त हो गया और ६६ पुत्रों को कुछ नहीं मिला, तब वे बड़े दुखी हुए । वे सब मिलकर भगवान ऋषभदेव की सेवा में उपस्थित हुए I उन्होंने अपने मन का गहरा क्षोभ प्रकट किया। भगवान ऋषभदेव ने राज्य के प्रति अपने पुत्रों की गहरी आसक्ति देखकर उन्हें परम कल्याणकारी उपदेश दिए। उन उपदेशों से भी उनकी भगवत्ता ही प्रकट होती है। उनके उन उपदेशों में कुछ का सार इस प्रकार है
१. हे पुत्रो, मानवीय संतानो, जगत् में शरीर ही दुखों का
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