SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और इसी प्रकार अनन्त काल तक चलता रहेगा। जैन धर्म में इस अखण्डित काल-चक्र को दो भागों में विभक्त किया गया है । एक भाग को उत्सर्पिणी-काल और दूसरे भाग को अवसर्पिणी-काल कहते हैं। उत्सर्पिणी-काल में मनुष्य दुःख से सुख की ओर जाता है। इसलिए इस काल को विकास-काल भी कहते हैं । अवसर्पिणी-काल उसे कहते हैं, जो मनुष्यों को वृद्धि से ह्रास की ओर ले जाता है। जिस प्रकार मशीन की गरारी के दो पहिए होते हैं, उसी प्रकार उत्सपिणी और अवसर्पिणी भी काल-चक्र के दो पहियों के समान हैं। जिस प्रकार पहियों में आरे होते हैं, उसी प्रकार काल-चक्र के इन दोनों पहियों में भी छह-छह आरे माने जा सकते हैं। प्रत्येक आरे का नाम, उसके गुणों को दृष्टि में रखकर, इस प्रकार निश्चित किया गया हैअवसर्पिणी-काल के आरों का क्रम इस प्रकार है : १. सुखमा सुखमा अत्यन्त सुख रूप । २. सुखमा-सुखरूप। ३. सुखमा दुखमा सुख-दुख रूप । ४. दुखमा सुखमा-दुख-सुख रूप। ५. दुखमा-दुख रूप । ६. दुखमा दुखमा-अत्यन्त दुख रूप। उत्सर्पिणी-काल के आरों का क्रम ठीक इसका उल्टा है, अर्थात् वह दुखमा दुखमा से आरम्भ होता है और सुखमा सुखमा पर समाप्त हो जाता है। ___ इन आरों की पारस्परिक काल-सीमा इतनी बड़ी होती है
SR No.010149
Book TitleAntim Tirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShakun Prakashan Delhi
PublisherShakun Prakashan Delhi
Publication Year1972
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy