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कर दिया है । यही कारण है कि अहिंसा के पश्चात् धर्म की सीढ़ियों में 'संयम' का ही स्थान है। संयम दो प्रकार का होता है - एक इन्द्रिय- संयम और दूसरा प्राणी-संयम । मन को सांसारिक विषयों से मोड़कर आत्मा में प्रवृत्त करने को इन्द्रियसंयम कहते हैं । बटुकाय के जीवों की हिंसा न करना प्राणीसंयम कहलाता है ।
संयम के पश्चात् तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है । तप का अर्थ है कामनाओं को रोकना, उन पर विजय प्राप्त करना । तप के महत्त्व का चित्र निम्नांकित पंक्तियों में बड़ी सुन्दरता के साथ चित्रित किया गया है :
तवो कोई जीवो जोइ ठाणं, जोगा सुयासरीरं कारिसंगं । कर्महा संजम जोगसन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्थं । - हे गौतम, तप अग्नि है, जीव ज्योति स्थान है । मन, वचन, काया के योग कुडछी है, शरीर कारिषांग है, कर्म ईंधन है, संयम, योग शान्तिपाठ है। ऐसे ही होम से मैं हवन करता हूं । ऋषियों ने ऐसे ही होम को प्रशस्ति कहा है ।
इस प्रकार अहिंसा, संयम और तप से अन्वित चिरन्तन सत्य को ही धर्म की संज्ञा से अभिहित किया गया है । जिस मनुष्य के हृदय में अहिंसा, संयम और तप की त्रिवेणी प्रवाहित होती है, उस मनुष्य की आत्मा विकारों से शून्य हो जाती है। उसके भीतर दिव्य प्रकाश उदय होता है । मनुष्य ही नहीं, देवता भी उसके चरणों को स्पर्श करके अपने को धन्य मानते हैं ।
अहिंसा, संयम और तप से अन्वित धर्म ही वास्तविक धर्म
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