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जैन धर्म में जो पूर्ण है, जो शाश्वत है, उसी को धर्म की संज्ञा में अभिहित किया गया है। तीर्थंकर महावीर धर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में कहते हैं- 'वत्सु सहायो धर्म्मा', अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । दूसरे शब्दों में, आत्मा के वास्तविक स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही धर्म है। उन्होंने धर्म के दो पक्ष बताए हैं । एक पक्ष का नाम श्रुत और दूसरे पक्ष का नाम चारित्र है । श्रुत का सम्बन्ध ज्ञान से और चारित्र का सम्बन्ध सदाचार से
। भगवान ने चारित्र की और आगे व्याख्या करते हुए कहा है - " अहिंसा, संयम और तप ही धर्म का स्वरूप है ।" व्याकरणसूत्र में भगवान ने अहिंसा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा है- "अहिंसा एक ऐसा दीप है, जो जगत् के सभी प्राणियों का पथ-प्रदर्शन करता है। वह एक ऐसा द्वीप है, जो डूबते हुए प्राणियों को सहारा देता है, त्राण है, शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है । वह भूखों के लिए भोजन के सदृश है, प्यासों के लिए जल के समान है। रोगियों के लिए औषधि के समान है। इतना ही नहीं, भगवती अहिंसा इससे भी अधिक मंगलकारिणी है । यह पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, बीज, हरित, जलचर, स्थलचर, नभचर, चर, स्थावर -आदि समस्त प्राणियों के लिए मंगलमय है । अहिंसा ही समस्त प्राणियों को संरक्षण देने वाली, पाप और संताप का विनाश करने वाली जीवनदात्री शक्ति है । अहिंसा अमृत है, अमृत का अक्षय कोष है। इसके विपरीत हिंसा गरल है, गरल का भंडार है ।"
प्रश्न यह है कि राष्ट्र और जीवन में अहिंसा की स्थापना किस प्रकार हो ? आचार्यों ने इस प्रश्न का उत्तर 'संयम' कह
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