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११. ब्रह्मचारी भिक्षु को शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श – इन पांच प्रकार के गुणों को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए ।
१२. देव - लोक सहित समस्त संसार के शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःख का मूल एकमात्र काम-भोगों की वासना ही है । जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुखों से छूट जाता है ।
१३. जो मनुष्य इस प्रकार दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सभी नमस्कार करते हैं ।
१४. यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है और शाश्वत है इसके द्वारा पूर्वकाल में कितने ही जीव सिद्ध हो गए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और भविष्य में होंगे ।
अपरिग्रह
'अपरिग्रह' का अर्थ समझने के लिए परिग्रह का अर्थ समझना अत्यधिक आवश्यक है । साधारण रूप में घन, सम्पत्ति आदि को ही 'परिग्रह' कहते हैं। पर आध्यात्मिक जगत् में परिग्रह का अर्थ ममता और आसक्ति की ओर इंगित करता है । आध्यात्मिक जगत् में ममता और आसक्ति के कारण वस्तुओं का अनुचित संग्रह करना या आवश्यकता से अधिक संग्रह करना परिग्रह है । परिग्रह के अभाव का नाम अपरिग्रह है । परिग्रह यदि आसक्ति है, तो अपरिग्रह को अनासक्ति कह
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