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सकते हैं । सन्तोष अपरिग्रह के ही अन्तर्गत आता है।
_ 'अपरिग्रह' लोक और परलोक-दोनों प्रकार के सुखों के लिए अत्यन्त आवश्यक बताया गया है। भगवान महावीर ने अहिंसा और सत्य के समान ही अपरिग्रह पर भी अधिक बल दिया है। उन्होंने 'सूत्रकृतांग' में स्पष्ट घोषणा की है जो साधक किसी भी प्रकार का परिग्रह स्वयं करता है, दूसरों से रखवाता है अथवा रखनेवालों का अनुमोदन करता है वह कभी भी दुखों से मुक्त नहीं हो सकता।' प्रश्न-व्याकरण में अपरिग्रह के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है-'समग्र लोकों के समस्त जीवों के लिए परिग्रह से बढ़कर कोई बंधन नहीं है।' वैकालिक-सूत्र में आचार्य शंयभव का कथन है-'परिग्रह से रहित मुनि जो पात्र, पीढ़ी, कमण्डल और अपने साथ वस्तुएं रखते हैं, वे एकमात्र संयम की रक्षा के लिए रखते हैं तथा अनासक्ति-भाव से वे उनका उपयोग करते हैं।'
भगवान महावीर की निम्नांकित वाणियों में अपरिग्रह की महत्ता की ही घोषणा की गई है :
१. पूर्ण संयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना होता है। समस्त पापकर्मों का परित्याग करके सर्वथा निर्मल होना तो और भी कठिन बात है।
२. जो संयमी पुरुष ज्ञान-पुत्र (भगवान महावीर) के प्रवचनों में रत है, वे बिड और उद्भेद्य आदि नमक तथा तेल, घी, गुड़ आदि किसी भी वस्तु के संग्रह करने का मन में संकल्प तक नहीं करते।
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