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________________ आत्मा के विकास और लौकिक सुख-शान्ति के लिए अस्तेय धर्म को अधिक पूर्ण बताया गया है। महर्षि पातंजलि ने अस्तेय की महत्ता के सम्बन्ध में स्पष्ट घोषणा की है- “जो मनुष्य अस्तेय धर्म को सिद्ध कर लेता है, उसके पास सभी प्रकार के रत्न उपस्थित हो जाते हैं।" ईर्ष्यावस्था में अस्तेय धर्म की महत्ता का निरूपण इन शब्दों में किया गया है-"किसी के द्रव्य की लालसा मत रखो। यदि इस वृत्ति को हम अपने जीवन में उतार लें, तो हम अपने दैनन्दिन व्यवहारों में भी श्रेष्ठ बन जाएंगे।" भगवान महावीर लोक और परलोक दोनों में दिव्यता उत्पन्न करना चाहते थे। वह लोक को इतना सबल और इतना महान पुरुषार्थी बना देना चाहते थे कि वह अपने आप ही दिव्य लोक को छू ले। यही कारण है कि वह लोक के मानस की कालिमा को हटाकर उसे चन्द्रमा की भांति धवल और गंगा की भांति पवित्र बना देना चाहते थे । लोक-मानस को पवित्र बनाने के लिए हो उन्होंने अस्तेय की महत्ता को स्वीकार किया, क्योंकि जब हम अस्तेय की बात करते हैं तो स्पष्ट रूप से उस स्तेय नामक महारोग से संघर्ष करने की बात करते हैं, जो मोह-लोभलालसा और मन की बुरी कामनाओं के कारण मनुष्य के मन के भीतर उत्पन्न होता है। हम अस्तेय धर्म को स्वीकार करके सहज में ही मन की इन विषैली प्रवृत्तियों पर अधिकार कर सकते हैं और अपनी आत्मा का स्वाभाविक विकास करने के साथ-ही-साथ विश्व में भी सुख-शान्ति के प्रचार-प्रसार में योग दे सकते हैं । इसीलिए तो भगवान महावीर कहते हैं :
SR No.010149
Book TitleAntim Tirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShakun Prakashan Delhi
PublisherShakun Prakashan Delhi
Publication Year1972
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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