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विश्व के सभी धर्मों ने अहिंसा को परम-धर्म के रूप में स्वीकार किया है । 'अहिंसा परमो धर्मः' सर्वविदित ही है। पर हिंसा किसे कहते हैं, इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर जाने बिना कोई अहिंसा के मार्ग पर यथोचित रूप में किस प्रकार चल सकता है ? महाभारत में अहिसा के अर्थ को इस प्रकार समझाया गया है-'मन, वचन और कर्म के द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों के साथ अद्रोह अर्थात मित्रता करना और प्राणी मात्र के ऊपर अनुग्रह करके उन्हें दुख न पहुंचाना अहिंसा परम-धर्म है।' जैन धर्मग्रन्थों में अनुकम्पा, दया, करुणा, सहानुभूति और समवेदना आदि को अहिंसा के ही अन्तर्गत माना गया है। जैनाचार्यों ने अहिंसा के अर्थ की व्याख्या करते हुए लिखा है-'मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी को, शारीरिक और मानसिक किसी भी प्रकार का कष्ट या क्लेश न पहुंचाने का नाम अहिंसा है। अहिंसा के दो रूप हैं-निवृत्ति और प्रवृत्ति रूप। किसी जीव की हिंसा न करना निवृत्ति रूप है और मरते हुए जीव की रक्षा करना प्रवृत्ति रूप है। अहिंसा के उल्टे अर्थ को ही हिंसा का अर्थ समझना चाहिए। __ भगवान महावीर इसी अहिंसा के मार्ग पर आजीवन चले। उन्होंने इसी पुण्यमय अहिंसा का जगत् के समस्त प्राणियों को उपदेश दिया। उन्होंने स्वयं तप किया, उन्होंने स्वयं तीर्थों की यात्राएं की। स्वयं उपदेश दिया और स्वयं अहंत और सिद्धों की उपासना के लिए प्रेरणा दी। पर उन्होंने उस तप, उस तीर्थयात्रा, उस उपदेश और उस पूजा-आराधना की निन्दा की, जिसमें अहिंसा कास्थान न हो। वह प्रत्येक तापस के लिए, प्रत्येक
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