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हैं-'अहिंसा प्रतिष्ठयां तत्सन्निधो वैर-त्याग' अर्थात् जब योगी अहिंसा धर्म को अपने जीवन में धारण कर लेता है, और पूर्ण रूप से उसमें उसकी दृढ़ता हो जाती है, तो उसके समीप निवास करने वाले प्राणियों का भी वैर-भाव दूर हो जाता है।
संसार के अन्यान्य धर्मग्रन्थों में भी अहिंसा को परम-धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है। महाभारत में अहिंसा की महिमामयी गरिमा को इन शब्दों में स्वीकार किया गया है'जो मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करता है, और कभी भी मांस नहीं खाता है, वह मनुष्य न तो स्वयं किसी भी प्राणी से डरता है और न दूसरों को डराता है। वह दीर्घायु होता है, आरोग्यपूर्वक रहता है और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है।' मनुस्मृति में भी अहिंसा की सर्वोच्चता की घोषणा इन शब्दों में की गई है-'जो मनुष्य होकर भी निरपराध प्राणियों को अपने सुख के लिए दु:ख देता है, उनकी हिंसा करता है, वह न तो इस जन्म में सुखी रहता है, न मरने के पश्चात स्वर्गसुख हो प्राप्त कर सकता है।' बौद्ध-धर्म में भी मनुष्य को अहिंसा के ही पथ पर चलने की सलाह दी गई है। सुत्त निपात के इन शब्दों में स्पष्टतः अहिंसा के ही महत्त्व का चित्र अंकित किया गया है-जैसा मैं हूं, वैसा वह है। जैसा वह है, वैसा में हूं। अपने समान दूसरों को जानकर न तो किसी की हिंसा करनी चाहिए और न करानी चाहिए। महात्मा ईसा ने अपने मतानुयायियों को स्पष्टतः निर्देशित किया है-'किसी को मत मार! तू मेरे पास पवित्र मनुष्य होकर रह । जंगलों के प्राणियों का वध करके उनका मांस मत खा।"
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