SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानव्रती के लिए और प्रत्येक साधक के लिए अहिंसा मूलमन्त्र मानते थे। उनका अनुयायी वही हो सकता था, जो अहिंसक हो। उनके संघ में वही सम्मिलित हो सकता था, जो हिंसा से दूर हो । हजारों महाव्रती और लाखों अणुव्रती उनके अनुयायी थे, पर वे सब-के-सब अहिंसा पर चलनेवाले थे, उसके महामन्त्र का जाप करनेवाले थे। भगवान महावीर की एक ही कसौटी थी-अहिंसा। वह अहिंसा की कसौटी पर ही धर्म को कसते थे, मनुष्य को कसते थे, उसके मन को कसते थे और कसते थे उसको आत्मा को। उनकी दृष्टि में उस व्यक्ति का जीवन निस्सार है, जिसमें अहिंसा-भाव न हो । वह अहिंसा को एक दिव्य प्रकाश के रूप में मानते थे। उनका कथन था कि अहिंसा ही वह प्रकाश है, जिसके सहारे मनुष्य आत्मानुसंधान कर सकता है, परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। उन्होंने अपने इस कथन में कि 'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है' अहिंसा के इसी दिव्य-प्रकाश की ओर संकेत किया है। भगवान महावीर अहिंसा को किस रूप में मानते थे, उसे कितना महत्त्व देते थे, उनके निम्नांकित कथनों में उसकी एक झलक देखी जा सकती है : १. सब प्रकार के जीवों को आत्मतुल्य समझो। सब जीव अवध्य हैं । आवश्यक हिंसा भी हिंसा है, जीवन की कमजोरी है। वह अहिंसा नहीं हो सकती। २. धर्म का पहला लक्षण है अहिंसा और दूसरा है तितिक्षा । जो कष्ट में अपने धर्य को स्थिर नहीं रख सकता, ११८
SR No.010149
Book TitleAntim Tirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShakun Prakashan Delhi
PublisherShakun Prakashan Delhi
Publication Year1972
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy