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________________ ने तुम्हें दलदल में फंसा हुआ निस्सहाय देखा । बस, फिर क्या था ! उन्होंने तुम पर आक्रमण कर दिया। तुम्हारा सारा शरीर नखों और दांतों से क्षत-विक्षत हो गया । तुमने प्राण छोड़ दिए। किन्तु..." भगवान महावीर कहते-कहते मौन हो गए थे । मेघकुमार ने उत्कंठा-भरे नेत्रों से भगवान की ओर देखा और बोले, "किन्तु क्या, प्रभो ? फिर क्या हुआ ?” भगवान महावीर बोल उठे, "वत्स, प्राण छोड़ते समय तुम्हारे मन में यह दुर्भावना उठ रही थी कि क्या ही अच्छा होता, तुम अपने इन शत्रुओं से प्रतिशोध लेते। तुम अपनी इस दुर्भावना के फलस्वरूप पुनः विन्ध्याचल पर्वत पर हाथी के रूप में पैदा हुए। बढ़कर बड़े हुए, तुम्हारा शरीर बहुत भारी-भरकम था । तुम्हारे पदाघात से धरती तक कंपित हो जाती थी । वन के बड़े-बड़े हिंसक जीव-जन्तु भी तुम्हें देखते ही तुम्हारा पथ छोड़ दिया करते थे । पर एक दिन तुम फिर महाविपत्ति के महाआवर्त में जा फंसे ।" भगवान महावीर मन-ही-मन सोचने लगे। कुछ देर तक मौन रहे, फिर अपने आप ही बोल उठे, "हां वत्स, एक दिन तुम फिर महा-आपदा के आवर्त में जा फंसे । तुम तो जानते ही हो कि कभी-कभी वनों में अपने आप ही भीषण दावाग्नि की लपटें उठती हैं और जब उठ पड़ती हैं, तो वनों के साथ-ही-साथ सहस्रों जीव-जन्तुओं को भी जलाकर भस्म कर देती हैं । "उस दिन सहसा तुम्हारे उस वन में भी दावाग्नि की लपटें उठ पड़ीं। वन के जीव-जन्तु भागने लगे । भाग-भागकर अपने १०२
SR No.010149
Book TitleAntim Tirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShakun Prakashan Delhi
PublisherShakun Prakashan Delhi
Publication Year1972
Total Pages149
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size6 MB
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