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• कृति में, जिसको सुबोधवृति नाम दिया गया है एक अलेखनीय विशेषता यह है किहाँ सर्विसिद्धि के प्रारम्भ में पाये जाने वाले मंगलाचरणस्प श्लोक मोक्षमार्गस्य मेतारं ....'को भूल ग्रन्थकार का स्परपसेनहीकल गया है, उसे यहाँ कह दिया गया है। बा-'.....मारपाद-मिलरकियोबादी नाकारलोक.... बम बमुगावार्थ: को
यह बात इससे पूर्व की किसी भी टीका में नहीं कही गयी थी। भामे इसे हो प्रमाण मानकर सभी ने इस मंगल श्लोक को तत्वार्थसूक्कार का मान्य कर लिया है। तत्वावृति (शुभसागरीय)
भट्टारक श्रुतसागर ने ग्रन्थप्रशस्ति मे अपना सम्पूर्ण परिचय दिया है। यथा - आपके गुरु मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण में हुए विद्यानन्दि है। जिनके कि गुरु भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति थे। आप सूरत शाखा के भट्टारक थे। इन्होंने अपने को देशव्रती एव वर्णी जैसा अभिधान के साथ अनेक अलंकरणों से विभूषित निरूपित किया है। आपके पट्ट की विस्तृत पट्टावली एवं आपकी अन्य रचनाओं के आधार पर भापका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी निश्चित होता है।
____ आप बहुश्रुत विद्वान् थे। इसी कारण आपने अपनी इस वृत्ति में सर्वार्थसिद्धि के व्याख्यान को ही बिस्तृत करने के लिए अनेक अन्य ग्रन्थो को आधार बनाया है । इस टीका में जैन व्याकरण ग्रन्थ कातन्त्र का पर्याप्त उल्लेख हुआ है। यह तत्त्वार्थसूत्र की प्रथम टीका है जिसमें कि कातन्त्र व्याकरण के सूत्रों के सन्दर्भ निबद्ध किये गये हैं।
इस दृत्ति की भाषा सरल व सुबोध संस्कृत है । लेखक का विषय के साथ भाषा पर भी पूर्ण अधिकार है। आपकी अन्य रचनाओं की अपेक्षा इस रचना में भाषागत प्रौढता के दर्शन होते हैं।
इस वृत्ति के कतिपय स्खलन भी चर्चा के विषय होते है। इनमें खासतौर पर दिगम्बर परम्परा में एक स्खलन की चर्चा तो अवश्य ही की जाती है। वह है कुछ असमर्थ साधुनों के लिए शीतकाल मादि में कम्बल मावि ग्रहण करने का। यद्यपि आपके मत से वे साधु इसका प्रक्षालन, सीवन या अन्य कोई प्रयल नही करते और शीतकाल व्यतीत होने पर वह त्याज्य हो जाता है । किन्तु आपका यह मत दिगम्बर परम्परा में कथमपि मान्य नहीं हो सकता। हारिमनीववृत्ति
तत्त्वार्थाधिगमभाष्य पर एक लघुकाय वृत्ति उपलब्ध होती है, जिसके कर्ता के रूप में यद्यपि याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र का नाम लिया जाता है किन्तु यह रचना सम्पूर्णतया उनकी नहीं है। अपितु इसमें कम से कम अन्य तीन आचार्यों का योग होने पुष्टि उपलब्ध साक्ष्यों से होती है। अन्य तीन सहकर्ताओं में एक आचार्य यशोभद्र हैं, दूसरे उनके शिष्य, जिनका कि नाम अभात है। इसकी सूचना आचार्य यशोभद्र के शिष्य ने अपनी वृत्ति (मात्र दशवें अध्याय के अन्तिम सूत्र की वृत्ति लिखी) में दी है। आचार्य यशोभद्र ने आचार्य हरिभद्र से अवशिष्ट (साढे पाँच अध्याय के अलावा) भाग पर वृत्ति
१. सुखबोधवृत्ति, २. तत्वावृत्ति ९/w,