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________________ पुनन्धिप्रसंगो जानतः पश्यतश्च कारुण्यादिति चेत्, न, सासवपरिक्षयात् । - तत्त्वार्थवालि .in. xa pyari जानतः पश्यतरचोब्ध्वं जगत्कारण्यतः पुनः । सस्य बन्धप्रसीन सचिवपरिक्षयात् ॥ तस्वार्थसार ८/९ ... " आचार्य अमृतचन्द्रसूरि अध्यात्मग्रन्थों के सफल टीकाकार हैं। उनकी विचारणा अध्यात्ममय ही हो गयी थी। इसी कारण उनकी प्रत्येक रचना में सर्वत्र अध्यात्म की झलक दिखाई देती है। तत्त्वार्थसार पद्यपि तत्त्वार्थसूत्र की विषयवस्तु पर निर्मित है परन्तु इसमें भी प्रसंग पाते ही अध्यात्म की चर्चा की गयी है। जैसे - उपसंहार में ही निश्चयनय और व्यवहारजय से मोक्षमार्ग का निरूपण किया है। इसमें स्पष्टत: यह बतलाया है कि निश्चयमोक्षमार्म साध्य है और व्यवहारमोक्षमार्म साधन । शुद्ध स्वात्मा का श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा तो निश्चयमोक्षमार्ग है और परात्मा का श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षा व्यवहार मोक्षमार्ग।' आपने प्रत्येक ग्रन्थ के अनुसार इस ग्रन्थ में भी आत्मतत्व में ही षट्कारकीय व्यवस्था को घटाकर अपने कर्तृत्व को गौण किया है । ग्रन्थ में कहीं भी आपका नामोल्लेख नहीं है तथापि आपकी इसी वृत्ति से आपके कृतित्व को पहचानने में किमपि विलम्ब नहीं होता। तत्वावृति विष्ण आचार्य प्रभाचन्द्र विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में होने वाले एक महान ग्रन्थकार, जिन्हें आगम के साथ दर्शन का मर्मस्पर्शी ज्ञान प्राप्त था, थे। आपकी रचनाओं के अन्त में प्राप्त प्रशस्ति पदों से जानकारी मिलती है कि आप धारानगरी के निवासी एवं आपके गुरु पद्मनन्दि सैद्धान्तिक थे। आपकी यह रचना यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र पर न होकर सर्वार्थसिद्धि के क्लिष्ट या अप्रकट पदों को स्पष्ट करने के लिए ही अवतरित हुई है । जिसे आपने मगल श्लोक के साथ निरूपित भी किया है । यथा - 'दुरदुर्जयतमः प्रतिमेवनार्क तत्त्वार्यवृतिपदमप्रकट प्रवक्ष्ये ।।'' रचना छोटी होती हुए भी महत्त्वपूर्ण है। महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि इसमें सर्वार्थसिद्धि के प्रमेय का पिष्टपेषण नहीं किया मया है अपितु जो विषय सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक में भी उपलब्ध नहीं है वह सब इसमें सुलभ होता है। इसलिए इस रचना की अपनी सार्थकता है। इससे सिद्धान्तविषय अनेक गूढ रहस्यों की जानकारी पाठकों सहज, सुबोध शैली में सुलभ होती है। इसमें उपलब्ध गाथायें कषायपाहुड, द्रव्यसंग्रह, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों से संकलित हैं। इसकी उद्धरित कई गाथाओं के स्रोत तो अभी भी अज्ञात ही हैं। रचना सफल एवं ज्ञानवर्द्धक है। सुबमोधवृत्ति (पास्करनन्दिकृत) __ पण्डित भास्करनन्दि (विक्रम की बारहवीं शताब्दी) विरचित तत्त्वार्थसूत्र की यह वृत्ति प्रकारान्तर से आचार्य पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का ही रूपान्तरण है । इसकी विषयवस्तु सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक के साथ कतिपय अन्य ग्रन्थों से भी संग्रहीत हुई है। किन्तु इनके नियोजन के कौशल से उनकी विद्वत्ता एवं सुरुचिपूर्ण शैली का प्रभाव पाठकों पर अवश्य पड़ता है। १. तत्वार्थसार, १/४, २. तत्वावृत्तिटिप्पण, मंगलाचरण, J.P ARS
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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