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तत्याधिगम भाव्य का रचविता वाचक उमास्वाति को माना गया और इन्हें ही तस्वार्थसूम का रचयिता भी बता दिया गया। पर मूल और भाष्यं दोनों का अन्तःपरीक्षण करने पर वे दोनों पृथक्-पृथक् दो विभिशकालीन कर्तृक सिद्ध होते हैं। जैसा कि ऊपर के विवेचन से प्रकट है।
परम प्रभावक आचार्यों की परम्परा में उमास्वामी एक ऐसे आचार्य हुए हैं, जिनको दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों समानभावेन सम्मान देते हैं और इन्हें अपनी-अपनी परम्परा का मानने में गौरव का अनुभव करते हैं।
दिगम्बर परम्परा में गृद्धपिच्छ, उमास्वामी और उमास्वाति तीनों नाम प्रचलित हैं। श्वेताम्बर परम्परा में केवल उमास्वाति नाम ही प्रसिद्ध है।
उमास्वामी ऐसे युग का प्रतिनिधित्व करते थे जब संस्कृत भाषा का मूल्य बढ़ रहा था। जैनेतर सघों में उच्चकोटि के संस्कृत ग्रन्थों का सृजन हो रहा था। जैनशासन में भी जैन संस्कृत विद्वानों की अपेक्षा अनुभूत होने लगी थी, इस आवश्यकता की सम्पूर्ति में उमास्वाति जैसे उच्चकोटिक विद्वान् की उपलब्धि जैनसंघ में हुई।
आचार्य उमास्वामी बेजोड़ सग्राहक थे । जैन तत्त्व के संग्राहक आचार्यों में उमास्वामी सर्वप्रथम हैं । उनके तत्त्वार्थसूत्र में जैनदर्शन से सम्बन्धित प्राय: सभी विषयों का अनुपम सग्रह प्राप्त होता है। आगमवाणी का यह अपूर्वसार ग्रन्थ है। आचार्य उमास्वामी की इसी मेधा से प्रभावित होकर आचार्य हेमचन्द्र ने कहा - 'उप उमास्वाति संग्रहीतार:' जैन तत्त्व के संग्राहक आचार्यों में उमास्वामी अग्रणी हैं। गुरुपरम्परा:
गृद्धपिच्छाचार्य किस अन्वय में हुए यह विचारणीय है। नन्दिसंघ की पट्टावली और श्रवणबेलगोला के अभिलेखों से यह प्रभावित होता है कि गृद्धपिच्छाचार्य आचार्य कुन्दकुन्द के अन्वय में हुए हैं । नन्दिसंघ की पट्टावलि विक्रम के राज्याभिषेक से प्रारम्भ होती है। वह निम्न प्रकार है -
___ 1. भद्रबाहु द्वितीय (4), 2. गुप्तिगुप्त (26), 3. माघनन्दि (36), 4. जिनचन्द्र (40), 5. कुन्दकुन्दाचार्य (49), 6. उमास्वामी (101), 7. लोहाचार्य (142), 8. यश कीर्ति (153), 9. यशोनन्दि (211), 10. देवनन्दि (258), 11. जयनन्दि (308), 12. गणनन्दि (358), 13. वज्रनन्दि (364), 14. कुमारनन्दि (386), 15. लोकचन्द (427), 16. प्रभाचन्द्र (453), 17. नेमिचन्द्र (472), 18. भानुनन्दि (487), 19. सिंहनन्दि (508), 20. वसुनन्दि (525), 21. वीरनन्दि (531), 22. रलनन्दि (561), 23. माणिक्यनन्दि (585), 24. मेघचन्द्र (601), 25. शान्तिकीर्ति (627), 26. मेरुकीर्ति (642)
उपर्युक्त पट्टावलि में आया हुआ गुप्तिगुप्त का नाम अर्हबलि के लिये आया है। अन्य प्रमाणों से सिद्ध है कि नन्दिसंघ की स्थापना अर्हद्वलि ने की थी और इसके प्रथम पट्टधर आचार्य माधनन्दि हुए। इस क्रम से गृद्धपिच्छ नन्दिसंघ के पट्ट पर विराजमान होने वाले आचार्यों में चतुर्थ आते हैं और इनका समय वीर निर्वाण संवत् 51 सिद्ध होता है। अतएव १. मसिद्धान्तमास्कर, भाग 1, किरण, पृ. 78.
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