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________________ 4 / तत्त्वार्थसूत्र - निकष - क्षेत्रवास्तु .... 11 29 11 इस सूत्र में कुप्य के बाद भांड भी बोलना ज्यादा ठीक लगता है। प्राचीन पाण्डुलिपियों में इस सूत्र में भांड शब्द देखने में आता है। क्योंकि एक-एक व्रत के 5-5 अतीचार बताये हैं, उनमें पूरे 5 जोड़े बने । अतः 10 बाह्य परिग्रहों की संख्या की पूर्ति नहीं होती 1 - अगार्थनगारश्च ॥ ॥ यहाँ च शब्द से क्षुल्लक ऐलक भी अनगार हैं यदि उन्होंने घर छोड़ दिया हो तो । एक स्थान पर रहे और एक ही चौके में खावे तो 11 वीं प्रतिमा नहीं हो सकती। - अहम अध्याद - मिथ्यादर्शनाविरति .... ।। 1 । इस सूत्र में बन्धहेतवः का अर्थ ये द्रव्यप्रत्यय हैं । - संघातनामकर्म - नोकर्मवर्गणाओं का ऐसा निश्छिद्र होना कि उनमें हवा का आना-जाना तो बना रहे, पर खून आदि न निकले। - उच्चैश्च 11 12 11 इस सूत्र में च शब्द से ऐसा लेना चाहिये कि गोत्रकर्म के उच्च उच्च, उच्च, उच्चनीच, नीच उच्च, , नीच तथा नीच-नीच ये छह भेद भी होते है। - ततश्च निर्जरा ॥ 23 ॥| यहाँ च शब्द से तप से भी निर्जरा होती है ऐसा लेना चाहिये। अथवा अविपाकनिर्जरा भी होती है। ईर्यापथ आसव के पहले समय में बन्ध और अगले समय में निर्जरा होती है। नवम अध्याय - सत्कारपुरस्कार परीषहजय का अर्थ 'अपना योग्य सत्कार न होने पर भी सतुष्ट रहना है। साथ में ऐसा भी लेना चाहिये कि अत्यधिक सत्कार या भीड़ एकत्रित होने पर चित्त में प्रफुल्लता न होना' भी सत्कार पुरस्कार परीषहजय है। यह ज्यादा कठिन है । • संस्थानविचय- लोक के आकार के साथ-साथ, शरीर की अपवित्रता का चिन्तन भी सस्थानविचय धर्मध्यान है। - एषणासमिति में भोजन के साथ उपवास भी उद्दिष्ट नहीं होना चाहिए। क्षेत्रों पर खुली हुई सन्तशाला, त्यागीव्रती भवन या दानशालाओं के भोजन से भी एषणासमिति नहीं पलती है । ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में आदि के दोनों शुक्लध्यान पाये जाते हैं। - - आचारवस्तु का अर्थ चर्या कैसी होनी चाहिये, मात्र इतना ज्ञान होना। मूलगुणों के नामोल्लेख का ज्ञान नहीं होना। ये द्रव्यश्रुत सम्बन्धी कारिका आदि नहीं याद कर पाते। - मकान बनाकर आनन्द मनाना, चाबी की सुरक्षा रखना, दुकान की सुरक्षा रखना, सब रौद्रध्यान है। - फ्लश की लैटरिन में जाना तथा योग्य स्थान पर मलमूत्र क्षेपण न करने से प्रतिष्ठापना समिति नष्ट हो जाती है। - सामान्यकेवली से समुद्घातगत केवली की और उससे अयोग केवली की असख्यातगुणी निर्जरा होती है। बलम अब्बा -- मुक्त आत्माएँ निष्क्रिय नहीं हैं। यहाँ सिद्ध बनने के बाद उनका गमन सात राजू होता है। वहाँ भी ये ऊर्ध्वगमन स्वभाव से सहित हैं। परन्तु धर्मद्रव्य के अभाव होने से ऊपर गमन नहीं हो रहा है। ऐसा नहीं जो सिद्धों में लोकान्त तक जाने की ही उपादान शक्ति हो 1 • ईयर धर्मद्रव्य नहीं है, क्योंकि ईथर तो पुद्गल है पर धर्मद्रव्य पुद्गल नहीं ।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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