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XXIX / तत्वार्थसूत्र-निक
बन्ध होगा । सो कौन ऐसा समझदार होगा जो पुण्य के घात के लिये पाप का बन्ध करेगा। अतः सम्यग्दृष्टि पाप की निर्जरा तो करता है परन्तु पुण्य का घात नहीं करता। जैसा कि मैल को दूर करने के लिये साबुन लगाना पड़ता है, पर साबुन को हटाने के लिये जल धारा डाली जाती है। आचार्य श्री के मुख से जो मैंने सुना, वह ज्यादा उपयुक्त दिखता है। मैल हटाने के लिए पानी डालना पड़ता है, पाप के मैल को हटाने के लिये पुण्य का पानी डाला जाता है, परन्तु पानी को हटाने के लिये पानी नहीं डाला जाता । वस्तुतः पुण्य नौका की यात्रा में अनुकूल हवा के समान है, जो उसे गति देता है। पुण्य संसार से पार उतारने में सक्षम बनाता है। जैसे अगर घर में उपद्रवी तत्त्व घुस जाये तो कन्ट्रोल रूम में पुलिस को फोन करके बुलाना पड़ता है। पुलिस उपद्रवियों को खदेड़कर बाहर करता है। फिर पुलिस अपना काम करके स्वयं चली जाती है। पाप रूपी उपद्रवी को खदेड़ने के लिये पुण्य पुलिस का काम करती है और उसे बाहर निकाल कर खुद चली जाती है। तत्वार्थसूत्र की टीकाओं का वैशिष्टय
इसमें आचार्य पूज्यपाद की टीका का उल्लेख करते हुये उनकी वर्णन शैली का निरूपण किया, जो सचमुच में वह अपने आप में अनोखा है। मैंने पहला ऐसा टीकाग्रन्थ देखा है, जिसकी टीका के वाक्य भी सूत्र का रूप धारण कर गये हैं। पारिभाषिक शब्दों को गढ़ने मे जो कौशल आचार्य पूज्यपाद महाराज की कृति मे दिखता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है ।
यहाँ श्रुतसागरसूरि की बात भी की गई। इस सम्बन्ध मे हमें यह ध्यान रखना है कि भट्टारकीय परम्परा मे जैन साहित्य मे जो विकृति या मिश्रण हुआ है, उसको कभी नकारा नही जा सकता। मध्यकाल में भट्टारकीय परम्परा का जोर बढ़ा और बहुत सी ऐसी अवाछित बाते जैन साहित्य में जुड़ गई, जिनका जैनदर्शन से कुछ लेना-देना नहीं था । श्रुतसागरसूरि ने अनेक ऐसी बातें लिखी जो गले उतरने लायक नहीं हैं। इस विषय पर विद्वानों द्वारा चिन्तन अवश्य होना चाहिए। पण्डित कैलाशचन्द जी द्वारा लिखित 'जैन साहित्य का इतिहास' (दोनों भाग), एवं पं. जुगलकिशोर मुख्तार जी का 'जैनसाहित्य के इतिहास पर विशद प्रकाश' तथा 'युगवीर निबन्धावली' और रतनलाल कटारिया की 'जैन निबन्ध रत्नावली' विद्वानों को पढ़ना चाहिये | आप इन्हें पढ़कर स्वयं इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे, कि साहित्यकार देश-काल की परिस्थितियों से अछूता नहीं होता। इसलिये बहुत बार ऐसा भी हुआ है, कि समय और परिस्थितियों से समझौता करके हमें यह सब चीजे अपनानी पड़ती हैं।
आचार्य श्री जी ने एक बार श्री चारुकीर्ति भट्टारक के सामने ही, जबलपुर में सन् 1988 में एक घटना कही थी, कि भीम ने कीचक के वध के लिये साड़ी पहनी थी। वस्तुतः भीम को साड़ी पहनना पड़ी थी। भट्टारक परम्परा की जो शुरूआत हुई, वह ऐसे ही समय परिस्थितियों की प्रेरणा और प्रभाव के कारण हुई थी। आचार्य श्री ने कहा था आज वह परिस्थिति नहीं है, कीचक के बध के बाद भी यदि भीम साडी में लिपटा है तो अच्छा नही दिखता। उसे तो लगोंट में आकर खुले मैदान में गदा घुमाकर अपने पौरुष और पराक्रम का प्रदर्शन करना चाहिए। महाराज श्री का इसके पीछे केवल यही भाव है, कि जिनलिंग की जो व्यवस्था है, उसके अन्तर्गत भट्टारकीय व्यवस्था को कहाँ फिट किया जाये ? विद्वानों को इस पर विचार करना चाहिए ।
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