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________________ मूलनायकालको 1008 नेमिनाथ भगवान की अतिशयकारी पचासन प्रतिमा विराजमान है प्रतिमा के पावमूला में प्रसिधापक हजारीलाल जवाहरलाल जी के नाम सहित प्रतिष्ठा संवत् माय सुची 5 20 1937 उत्कीर्ण है। इस देवी में विराजमान जिनबिम्बों में स्फटिक लगि से निर्मित दो जिनबिम्ब संभवत: चन्द्रकान्त शिला से प्राप्त पाषाण से निर्मित हैं। इन दोनों जिनबिम्बों का वजन उसके विग्रह के अनुपात में बहुत कम (फूल जैसा) है। श्री नेमिनाथ भगवान् की वेदी में 50 वर्ष पूर्व रात्रि में वाद्यों की सुमधुर ध्वनि सुनाई पड़ती थी। दूसरी वेदी के गर्भगृह का प्रवेशद्वार भी पहली की भांति है। दोनों वेदियों में अन्तर यह है कि यह बेदी दो फुट ऊंचाई वाले चबूतरे पर रखी गई है। चबूतरे पर सामने एक से सवा मीटर स्थान पूजन के लिये पहली वेदी की भाँति ही छूटा हुआ है। यह बेदी संगमरमर की बनी हुई है और पहली वेदी से छोटी है। चार स्तम्भों पर तीन कटनी हैं, दोनों स्तम्भों पर देव चैवर ढारते हुए बने हैं। वेदिका शिखर एवं कलशों से सुशोभित है। बाजू में दोनों ओर जालीदार नक्काशी है। इस वेदी पर वेदी नायक 1008 श्री अजितनाथ भगवान् की लगभग डेढ़ फीट अवगाहना की पद्मासन मुद्रा में विराजमान अष्टधातु की प्रतिमा है। यह वेदी सि. धर्मदास प्रेमचन्द जी की कही जाती है। ऐसा लगता है कि यह वेदी बनी बनाई मैंगवाकर स्थापित कराई गई है। द्वार से होकर हम भीतर बडे हॉल में प्रवेश करते हैं, जिसमें बाई ओर एक छोटा कमरा है। तीसरी वेदी इसी कमरे में है। तीसरी वेदी की बनावट दूसरी वेदी से भिन्न है। संगमरमर से बनी यह वेदी शिखरों एवं कलशों से सुसज्जित है। वेदी लगभग तीन फुट ऊँचे चबूतरे पर स्थित है । यह वेदी श्री जगमोहनलाल लखपतराय जी की कही जाती है। गर्भगृह में दो द्वार हैं, एक सामने उत्तर दिशा में और दसरा पार्श्व में पश्चिम दिशा में। इस वैदिका में गेदीनायक के रूप में श्री 1008 चन्द्रप्रभ भगवान् की श्वेत संगमरमर की प्रतिमा विराजमान है, जिस पर प्रतिष्ठा सं0 1951 अंकित है। इस वेदी के बाद पूर्व एव वर्तमान स्थिति में अन्तर प्रारम्भ हो जाता है। पहले तीसरी वेदी के सामने बरामदा था जो चारों ओर सुन्दर स्तम्भों पर आधारित था, बीच में लगभग डेढ फुट गहरा आगन था । यहाँ दीपावली के अवसर पर जलमन्दिर बनवाकर पावापुरी जी की रचना की जाती थी। दाहिने बरामदे में किनारे पर चौथी वेदी थी। जो पहली वेदी की ही भॉति थी। इस वेदी में तीन बार परिवर्तन हुए है । कहा जाता है कि पहले इसमें वेदीनायक के रूप में श्री चन्द्रप्रभु भगवान् की प्रतिमा विराजमान थी, जो अब तीसरी वेदी मे अन्य जिनबिम्बों के साथ विराजमान है। मन्दिर स्थापना के लगभग 56 वर्ष बाद व्यौहारी के पास मऊ ग्राम से शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिमा रीवा नरेश महाराजा गुलाबसिंह के आदेश से प्राप्त हुई । प्रतिमा में स्पष्ट चिह्न का अभाव होने से निर्णय करना कठिन था कि प्रतिमा किन तीर्थंकर की है । तत्कालीन समाज बन्धुओं ने इस प्रतिमा को शान्तिनाथ के रूप में प्रणाम किया। इसके बाद जिस वेदी का निर्माण हुआ उसमें बीचों-बीच श्री शान्तिनाथ प्रभु की प्रतिमा स्थापित हुई। मूर्ति के दोनों ओर दो सुन्दर आले थे, जिनमें से एक में चन्द्रप्रभ भगवान का जिनबिम्ब और दूसरे में दो धातु प्रतिमाएं विराजमान थीं। वेदी के गर्भगृह के दोनों मोर पूर्वाभिमुख और उत्तराभिमुख जालीदार दरवाजे थे। सतना मन्दिर में यह एकमात्र वेदिका है जो पूर्वाभिमुख है। श्री सेवकचन्द्र जी ने वेदी का फर्श एवं साज-सज्जाकराकर एक टेबिल इस वेदी के लिये भेंट की थी। टेबिल पर पीतल की चद्दर मढी हुई है, जिसमें वेदी की प्रतिष्ठा तिथि मगसिर सुदी ! सं0 1993 की सूचना प्राप्त होती
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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