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________________ समाजशास्त्रीय दुखीम के पानुसार - "व्यक्ति की अपेक्षा समाज ही मूल्यों का सर्वप्रथम निर्माता अन्तिम मानदण्ड और अन्तिम उद्देश्य है।"१ . उक्त परिभाषामों के सन्दर्भ से जोड़कर देखें तो 'मूल्य' को हम मानवीय व्यवहार को नियन्त्रित करने वाले, मनुष्य को श्रेष्ठ, श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम बनाने वाले कारक या मानक मान सकते हैं, जिसका लक्ष्य समाजोन्मुख बनाकर व्यक्ति के विकास को पूर्णता प्रदान करना, मार्गदर्शन करना होता है । मूख्य हमेशा सामाजिक सन्दर्भो से जुड़े होते हैं तथा समाज द्वारा स्वीकृत होते हैं। यहां तक कि यदि व्यक्ति विशेष के मूल्य समाजोपयोगी हों तो वे भी समाज द्वारा स्वीकार कर लिये जाते हैं। अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी ने जीवनमूल्य विषयक अपने विचारों में कहा है - "मूल्य क्या है ? जो जीवन के मूलभूत तत्त्व हैं, उन्हीं का नाम मूल्य है। जो जीवन को बनाने या संवारने वाले मौलिक तत्व हैं उन्हीं का नाम मूल्य है। जहाँ मौलिकता समाप्त हो जाती है, वहाँ विजातीय तत्त्वों को खुलकर खेलने का मौका मिल जाता है। सरलता, सहनशीलता, कोमलता, अभय, सत्य, करुणा, धृति, प्रामाणिकता, संतुलन आदि ऐसे गुण हैं जिनको जीवनमूल्यों के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है।"२ डॉ. धर्मवीर भारती के अनुसार - "मनुष्य अपने में स्वत: सार्थक और मूल्यवान है - वह आन्तरिक शक्तियों से सम्पन्न, चेतनस्तर पर अपनी नियति के निर्माण के लिए स्वत: निर्णय लेने वाला प्राणी है।" साहित्य में हित का भाव विद्यमान रहता है इसीलिए वह साहित्य है। मानव जीवन साहित्य का मूल विषय है जिसे सार्थक वक्तव्यों से सजाया जाता है । साहित्य की सार्थकता ही जीवनमूल्यों में निहित होती है । ये वे मूल्य हैं जो मानव जीवन के यथार्थ से अवगत कराकर उसे आदर्श स्थिति तक ले जाते हैं । डॉ. शम्भूनाथसिंह के अनुसार - "साहित्य में जीवनमूल्य ऊपर से आरोपित नहीं होते, बल्कि वे साहित्यकार के अनुभूत सत्य होते हैं जो उनकी आत्मोपलब्धि की प्रक्रिया में रूपायित होकर अपनी सुन्दरता, उदात्तता और महत्ता के कारण समाज द्वारा जावन मूल्या क रूप म स्वाकृत किये जाते हैं।" ये जीवनमूल्य मनुष्य को प्रभावित एवं नियन्त्रित करते हैं। मनुष्य को शोषण से बचाते हैं, स्वच्छन्द जीवन पर विराम लगाते हैं और यह आभास दिलाते रहते हैं कि तुम एक श्रेष्ठ मनुष्य बनो, अपनी श्रेष्ठता को निखारो । इन जीवन मूल्यों के मूल में यह भावना है कि "नहि मानुषात् कश्चित् महत्तरं विद्यते" अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। ये जीवन मूल्य सुख एवं शान्ति विधायक होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आचार्य उमास्वामी अपनी साधना एवं प्रखर विद्वत्ता के लिए विख्यात हैं। वे मूल्यवान जीवन जीते हुए सन्तत्व की कोटि में पहुंचे, यह उनके रचनाकर्म से स्पष्ट है । जिस तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की रचना उन्होंने भव्य जीवों के कल्याण की कामना से अनुग्रहपूर्वक की हो उनका स्वयं का जीवन तो मूल्यवान होगा ही। यद्यपि 'तत्त्वार्थसूत्र' सिद्धान्तग्रन्थ है, किन्तु इसमें जीवनमूल्यों का समावेश भी प्रसंगवशात् आया है उन्हीं को प्रस्तुत करना हमारा अभिप्रेत १. सौन्दर्षमूल्य और मूल्यांकन, पृ.१ २. अणुव्रत (मासिक), वर्ष 46, अंक 10, पृ.2 ३. मानवमूल्य और साहित्य : डॉ. धर्मवीर भारती, भूमिका -1, पृ. 10
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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