________________
-
पड़ता है। संसार की एवं जीवन की नश्वरता से भयभीत म सोनों में रमता है और मैं भोगनापूर्ति के लिए कुत्सित मार्ग चुनता है। ऐसे ही सज्जन मानवरत्नों से समाज सुशोभित और निरापद होता है।
प्रोषध की अनुपालना राष्ट्रधर्म है। हमारा प्रोषध किसी अन्य को अन्न का अभाव नहीं रहने देता । स्वाद की लोलुपता से होने वाले अनेक पापों से बचाव होता है।
__ भोगोपभोगपरिमाणवत व्यक्तिगत निराकुलता एवं सामाजिक दोनों ही दृष्टियों से उपयोगी है । भोगोपभोग सामग्री के भण्डारण की दुष्प्रवृत्ति घरों में इतनी भर गई है कि वस्त्रों के संग्रह की कोई सीमा ही नहीं। मेचिंग के युग में नख
की प्रदर्शन सामग्री का अन्त ही नहीं। प्रतिस्पर्धा की उत्पत्ति ने समाज की दशा और दिशा को विकृत कर डाला।
आचार्य श्री की विलक्षण सामाजिक दृष्टि प्रणम्य है । वास्तविकता यह भी है व्यक्ति समाज की ईकाई है व्यक्ति के सद्गुणी, अनुशासित, संस्कारित, नीतिपरायण होने से समाज भी तदनुरूप होता है। आचार्य ने इसीलिए इन व्रतों को शील कहा है। ये शील (स्वभाव) के अग बनने चाहिए। तत्त्वार्थभाष्य के उल्लेखानुसार श्रावक के शील और उत्तरगुण एकार्थक हैं। सूत्रकार गुणव्रत और शिक्षाव्रत को शील संज्ञा देते हैं।
प्राय: हम हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील को तो पाप की श्रेणी में रख लेते हैं परन्तु परिग्रह को पुण्य की चेरी समझकर उसके वर्चस्व की वृद्धि में हेय-उपादेय, नीति-अनीति, कुटिलता-वक्रता किसी का भी ध्यान नहीं रखते । इसी प्रवृत्ति पर सूत्रकार ने अकुश लगाकर परिग्रह का परिमाण करने का सुझाव दिया है और अल्पारम्भ, अल्पपरिग्रह का भाव होना, जीवन में विनय भद्रता होना मनुष्यत्व का सूचक माना है -
अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ।' नीतिकार भी कहते हैं -
अनीति से नशत है, धन यौवन और वंश ।
तीनों पर ताले लगे, रावण कौरव कंस ॥ वर्तमान में न जाने कितने घोटाले करने वालों के कच्चे चिढे उनके विनाश के कारण बने । समाज में ऐसे धन के आगमन से ऐसी प्रवृत्ति के मनुष्यों से भय का वातावरण रहता है। दिन दहाड़े लूटने वालों, अपहरण करने वालों ने रातों की क्या दिन की चैन नष्ट कर दी। परिग्रह के माध्यम क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दासी-दास, कुप्य का प्रमाण करने वाले समाज में भला कहीं भूमाफिया, अण्डरवर्ल्ड के सरगना, उत्पन्न हो सकते हैं ?
तत्त्वार्थसूत्रकार के व्रत की परिभाषा पूर्णत: वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तथा समाज के लिए हितकर एवं प्रेरक है। उमास्वामी जी हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह से निवृत्त होना व्रत कहते हैं। यहाँ व्रत मात्र शारीरिक कष्ट अथवा गृहत्याग नहीं है अपितु असत्प्रवृत्तियों से निवृत्ति ही व्रत है । व्रत का उद्देश्य मानव को श्रेष्ठता की ओर अग्रसर करना ही तो है और कुत्सित प्रवृत्तियों से निवृत्ति के अभाव में ऐसा हो नहीं सकता। अत: आत्मोन्नति हेतु इसी प्रकार के व्रत ही करणीय एवं मननीय हैं। १. तत्त्वार्थसूत्र, 6/16. १.वही,6/17.