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156 / तत्वार्थसूत्र- निकंव
दान देते रहने से मूल्यों के तट नहीं तोड़ता । न ही समाज में असन्तोष की दावाग्नि बढ़ती है और न ही समाज शोषकशोषित, धनी निर्धन सदृश वर्ग भेद की दीवारों में बंटता है। धन के प्रति मूर्च्छाभाव की अल्पता से अहंकार आकांश नहीं नाता। समाज में जन-कल्याण की त्रिवेणी प्रवाहित होती है। सूत्रकार मूर्च्छा परिग्रहः' कहते हैं । धन होना इतना दुःखदायी नहीं जितना धन के प्रति मूर्च्छा, मोह, अत्यधिक आसक्ति या लगाव । मूर्च्छा का भाव समाप्त होते ही ऊँचनीच के विभेद की दीवार ढह जाती है, तब एकत्वमयी सात्त्विक शान्ति का प्रसार होता है। यही भूमि है अहिंसा की । जब कोई गैर नहीं, पराया नहीं, तो हिंसा किसकी, सूत्रकार ने इस सत्य को पहचाना और धन के स्वेच्छया विकेन्द्रीकरण को अहिंसा की धराय पुष्टि एवं आतंकवाद के निराकरण में भी महत्त्वपूर्ण कारण समझा। सच तो यह है लोभ (मूर्च्छा ) ही सब पापों का जनक है।
परिग्रह की बढ़ती लिप्सा, ॐचे जीवनाचार मे सम्बन्धित भ्रामक धारणाओं तथा सुख समृद्धि की अनुषातहीन कामनाओं ने सामाजिक वृत्ति और प्रवृत्ति को इस सीमा तक दूषित कर दिया है कि सभी परम्परागत सामाजिक मूल्य चरमरा गए हैं। टूटते रिश्ते, चरमराता दाम्पत्य, दहेजदानव के कारण बढ़ रहे देहदहन, हीनता से बढ़ते मानसिक अवसाद और आत्महत्याएँ परित्यक्त पत्नियाँ, तलाक सब परिग्रह के प्रति लिप्सा का ही परिणाम है। सारे नाजुक, भावुक एवं आत्मीय सम्बन्ध इन दिनों दौलत सम्पत्ति के आधार पर ही विकसित हो रहे हैं। फलतः सम्बन्ध समर्पण एवं आत्मीयता के रस से पल्लवित न होकर कलह और तनाव के कीटाणु से बीमार हो दम तोड़ रहे हैं। अभिवानशीलस्य नित्य वृद्धोपसेविन: के समाज में वृद्ध अब बोझ समझकर वृद्धाश्रमों में धकेले जा रहे हैं।
मायाचारी से धन अर्जित करना, कुटिलता से स्वार्थसिद्धि आचार्य तिर्यचगति की परिणति मानते हैं माया तिर्यग्योनमस्य' कहकर सावधान करते हैं। आचार्य उमास्वामी पाँच अणुव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ) तीन गुणव्रत (दिग्विरतिव्रत, देशविरतिव्रत, अनर्थदण्डविरति) चार शिक्षाव्रत (सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत, अतिथिसंविभागव्रत) ये 12 व्रत समाज के सुष्ठु स्वरूप की नींव हैं। इन व्रतों से वैयक्तिक जीवन ही आभामय नहीं होता अपितु इनकी चमक से पूरा समाज प्रभावित होता है। गुणव्रत अणुव्रतों का विकास है। दिव्रत तृष्णा में कमी लाता है । सन्तोष की ओर प्रवृत्त करता है। रातदिन स्विस बैंकों में खाते खोलने के साथ-साथ अन्यान्य विकृतियों से बचा जा सकता है। देशव्रत इच्छाओं को रोकने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। अनर्थदण्डव्रत तो है अनर्थ से उत्पन्न दण्ड से बचाने वाला। रात दिन व्यर्थ ही अनर्थ के चक्रव्यूह में फंसे रहते हैं।
हिंसादान का तो क्या कहें, अस्त्र-शस्त्रादि हिंसक उपकरण यदि खुल्लमखुल्ला अवैध तरीकों से बाजार में न आए तो शायद इतने अपराध भी न हों। अधिकांश हत्याएँ बिना लाइसैंस के हथियारों से होती हैं ।
चारों शिक्षाव्रत तो इस क्रम में ऐसी भागवतशक्ति है जो आचरण को निर्मल रखते हैं, समाज के धन-मन और तन को निर्मल रखते हैं। वस्तुतः ये वे तार हैं जो मानव के अन्तःकरण रूपी विद्युतगृह से जुड़कर समाज को रोशन रखते
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सामायिक करने वाला व्यक्ति एकान्त में बैठ निष्पक्षता और विवेक की आँख से अन्तर्मन की किताब अवश्य
१. तवार्थसूत्र, 7/17
२. तवार्थसूत्र, 6/17.