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है। अतः कर्म पुद्गल रूप भी है और संस्कार रूप भी हैं। जीव और कर्म का एक-दूसरे के निमित्त से परिणमन हुआ करता है।
योग और लेश्या का इतना गहन सम्बन्ध होने पर भी दोनों भिन्न-भिन्न हैं। योग स्थूल है और लेश्या सूक्ष्म है। लेश्या आत्मा का विशिष्ट परिणाम है और योग वीर्यान्तराय के क्षय-क्षयोपशमजनित है। कषाय का क्षय 12 वे गुणस्थान में होता है और 13 वे गुणस्थान में मनोयोग और वचनयोग का सम्पूर्ण निरोध हो जाता है। 14 वे गुणस्थान में शेष काययोग समाप्त हो जाने पर साधक अयोगी हो जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि लेश्या की प्रशस्तता और अप्रशस्तता मन के परिणामों पर निर्भर करती है।
मन और चित्त को साधारणतः समानार्थक माना जाता है पर वस्तुतः दोनों पृथक् पृथक् हैं। मन तत्त्व का ममन करता है और चित्त या बुद्धि उसे ग्रहण करती है । चित्त से परे चेतन या आत्मा का अस्तित्व है। शरीर और मन पौद्गलिक हैं और चित्त अपौद्गलिक है। तत्त्व का ज्ञान मन से नहीं बल्कि कर्म से होता है तैजस और कार्माण सूक्ष्म शरीर हैं। इसके बाद स्थूल शरीर आत्मा है और फिर चित्त का निर्माण होता है। ज्ञान कर्म से चलता हुआ चित्त में पहुँचता है और फिर वह स्थूल शरीर और इन्द्रियों से होता हुआ अभिव्यक्त होता है। अतः चित्त को आत्मा की व्यापकता दी जा सकती है। स्वप्नावस्था में भी मन अपना कार्य रहता है इसलिए संसारी जीव सदैव कर्म का बन्ध करता रहता है। मनोविज्ञान में भी स्वप्नविज्ञान पर अच्छा कार्य हुआ है।
मूलप्रवृत्तियाँ और संज्ञाएँ -
जैनधर्म में मोहनीयकर्म को प्रबलतम शत्रु माना गया है। समस्त दुःखों का कारण वही है। मनोविज्ञान में जिसे मूलप्रवृत्ति और संवेग कहा जाता है उसी को जैनदर्शन 'संज्ञा' नाम से अभिहित करता है। स्थानांग की टीका में अभयदेवसूरि ने संज्ञा का अर्थ मनोविज्ञान भी किया है - संज्ञानं संज्ञा आभोग इत्यर्थ: मनोविज्ञानमित्यन्ये - पत्र 478 | संज्ञा का अर्थ सर्वार्थसिद्धि में (2.24) तृष्णा दिया हुआ है जो एक प्रकार से मूलप्रवृत्ति ही है। धवला (2.1.1) में इसके चार भेद गिनाये गये हैं- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह । स्थानांग (10.105) में दस और आचारांग नियुक्ति (गाथा 39 ) में उसके चौदह प्रकारों का उल्लेख मिलता है।
मूलप्रवृत्तियों (Instints) के साथ मनोविज्ञान के क्षेत्र में संवेगों (Emotion) का भी उल्लेख आता है जिनकी उत्पत्ति बाह्य या आन्तरिक उत्तेजना से होती है। जैनदर्शन में इनके कारणों पर भी विचार किया गया है जो आधुनिक मनोविज्ञान में नहीं मिलता। तुलनात्मक दृष्टि से इन्हें हम यों देख सकते हैं - मेबडूगल ने जिन चौदह मूलप्रवृत्तियों और उनके संवेगों का उल्लेख किया है उन्हें हम मोहनीय कर्म के विपाक और संवेगों के साथ इस प्रकार विचार कर सकते हैं.
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मोहनीयकर्म के विपाक
मूलसंबेग
संवेग
1. भय 2. क्रोध
3. जुगुप्सा 4. स्त्रीवेद
भय
मूलप्रवृत्तियाँ
पलायनवृति
क्रोध
जुगुप्सा
भय
संघर्षवृति क्रोध विकर्षणवृत्ति, जुगुप्साभाव
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