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अवस्था का कर्म-कन्छ ईपिथिक माना जाता है। संपराय का अर्थ है संसार जो कषायवाचक है और ईपिच योगजनक होता है । मिथ्यादृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तक कषाय का उदय होने से कर्म गोले कपड़ों पर पड़ी धूलि की तरह चिपक जाते हैं। उनमें स्थितिबन्ध होता है। पर ईपिथिक कर्मबन्ध की स्थिति बहुत थोड़ी, होती है। वे सूखी दीवाल पर पडी धूल के समान क्षणभर में झड़ जाते हैं। यह आस्रव उपशान्तमोह, क्षीणकषाय और सयोगकेवली (11-13 वें गुणस्थान) अवस्था में होता है।
___ तत्त्वार्थसूत्र में भावासव के कारण पांच माने गये हैं - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनकी तरतमता के आधार पर कर्मबन्ध होता है। कर्मबन्ध का आधार है जीव और अजीव । सरम्भ (सकल्प), समारम्भ, आरम्भ. ये तीन जीवाधिकरण हैं और निवर्तना, निक्षेप आदि अजीवाधिकरण में गिने जाते हैं।
इसके बाद इस अध्याय में आठों कर्मों का विशेष वर्णन किया गया है। इस सन्दर्भ में क्रोध, मान, माया, लोभ का विस्तृत वर्णन मिलता है जिसे लेश्या के माध्यम से समझा जा सकता है । शुभासव के कारणों के रूप में सम्यक्त्व का भी विवेचन हुआ है और दर्शनविशुद्धि आदि को तीर्थकरप्रकृति के आस्रव के रूप में गिनाया गया है। दो प्रश्नों पर विचार -
इस सन्दर्भ में दो प्रश्नों पर सर्वप्रथम विचार कर लेना आवश्यक है - 1. क्या मिथ्यात्व अकिचित्कर है? और 2. पुण्य को आस्रव क्यों माना जाता है ? इसका संक्षिप्त विवेचन यह है - 1. क्या मिथ्यात्व अकिचिकर है ? -
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी ने 1978 में अपने प्रवचनों के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि मिथ्यात्व स्थिति और अनुभागबन्ध में अकिञ्चित्कर है। इस पर भ्रमवश बड़ा विवाद फैल गया। धवला (पु. 12/291/15) में यह स्पष्ट कहा गया है कि योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध होता है तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध होता है। मिथ्यात्व चारों प्रकार के बन्ध में कारण नहीं होता । वह संसार का मुख्य कारण अवश्य है पर अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय उसके साथ रहता है। द्वितीय गुणस्थान में मिथ्यात्व नहीं रहता । वहाँ से 12 वें गुणस्थान तक की संज्ञा 'एकदेशजिन' दी गई है। (प्रवचनसार, 1/240) मिथ्यात्व बन्ध का कारण है अवश्य पर वहाँ प्रकृति और प्रदेश बन्ध का बाहरी कारण योग है और अन्तरंग कारण कषाय है। तीव्र कषाय के कारण ही मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोडाकोडी मानी जाती है। मिथ्यात्व स्वय कुछ नहीं है।
सभी कर्म अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र हैं। वे दूसरे कर्मों के कार्यक्षेत्र में संक्रमण नहीं करते । दर्शनमोह (मिथ्यात्व) चारित्रमोह के लिए अकिञ्चित्कर है। इसी तरह से सभी कर्म एक दूसरे के लिए अकिञ्चित्कर हैं। 25 प्रकृतियों के बन्ध का कारण भी अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय ही है। वे प्रथम तथा द्वितीय गुणस्थान से आगे नहीं बंधती। पर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीन दर्शनमोहनीय को मिलाकर मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों के उपशमन से अनन्तानुबन्धी कषायों (चारित्रमोहनीय) का उपशमन भी होता है। अर्थात कषाय की ही प्रधानता है।
यह भी यहाँ उल्लेखनीय है कि समयसार (गाथा 109/169) में कर्मबन्ध के चार कारण ही दिये गये है - मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय और योग । प्रमाद कषाय के अन्तर्गत ही था। पर उमास्वामी ने इसे पृथक्कर पांच कारणों