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11. तत्त्वार्थसूत्र में अणुव्रत व महाव्रत और उनके अतिचारो 11. भारतीय दण्डविधान में 23 अध्याय हैं।
की स्पष्ट व्यवस्था एव व्याख्या दी गई है तथा इसमें कुल 10 अध्याय हैं।
12. तत्त्वार्यसूत्र में जीव के शुभ-अशुभ भावों के अनुसार उसका शुभ-अशुभ आसव होता है और उसके परिणाम भोगने के लिए वह स्वयं कर्त्ता एवं भोक्ता है।
में भी हो सकती है, मारता है तो उसको कोई दण्ड नहीं भुगतना पड़ेगा। उदाहरण के लिए चीटियों, मस्तियों या मच्छरों का कोई मूल्य नहीं है और यदि हजारों की संख्या में कोई व्यक्ति मारता है तो वह किसी भी दण्ड को पाने का उत्तरदायी नहीं है और इसी प्रकार धारा 429 में किसी हाथी, ऊंट, घोडे, खच्चर, भैसे, साँड गाय व भैस को चाहे उसका कोई भी मूल्य हो या 50 रूपया या उससे अधिक मूल्य के किसी भी अन्य जीवजन्तु को विष देने विकलाग करने या निरुपयोगी बनाने का अनिष्ट करता है तो वह कारावास से या जुर्माने से या दोनों से दण्डित किया जावेगा। यहाँ जानवरो की दृष्टि मे भेद किया गया है। जबकि तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा कोई भेद नहीं किया गया है। भारतीय दण्डविधान में अध्याय 4 में धारा 76 से लेकर 106 तक साधारण अपवाद बताये गये हैं और इसमें यदि कोई व्यक्ति शराब पीकर अपराध करता है तो वह अपवाद की श्रेणी में आ सकता है। जबकि तत्त्वार्थसूत्र में ऐसा नहीं है।
1. भूमिका
2. साधारण व्याख्यायें अहिंसाणुव्रतादि
3. दण्ड शिक्षा के विषय में
A. साधारण अपवाद
12.
भारतीय दण्ड विधान में अपराध करने वाला उस अपराध से प्रभावित पक्ष न्याय व्यवस्था तक पहुंचने वाली प्रक्रिया और न्याय देने वाला व्यक्ति इन सबका होना आवश्यक है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जहाँ तत्वार्थसूत्र का आधार जीव की चारों गतियों की अवस्था का वर्णन करते हुये उसे सर्वोत्कृष्ट एवं सर्वोच्च अवस्था में अर्थात् मोक्ष में जाने का मार्ग प्रशस्त करना है, वहीं भारतीय दण्ड विधान केवल एक समय विशेष की व्यवस्था है लेकिन तत्त्वार्थसूत्र एवं भारतीय दण्डविधान में कुछ समानतायें भी हैं जो कि निम्नलिखित सारणी से स्पष्ट होती हैं और जो निरतिचार अर्थात् निर्दोष व्रतों का पालन करने में सहायक होती हैं
1. न्यायविधिपूर्वक रहना अथवा ग्रहण करना।
2. 6-52 में हिसादि 5 पापों एवं 5 व्रतों के लक्षण
3. 53-75 में प्रायश्चित्त विधि
4. 76- 106 में प्रमत्तयोग न होने से पाप का बन्ध नहीं होता