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________________ अचाविजतमाम येच ईपिए मेगा । अविभागीदव्यं परमाणु विजाणाह' अर्थात् जिसका स्वयं स्वरूप ही आदि, मध्य और अन्त रूप है, जो इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण योग्य नहीं है, ऐसा अविभागी- जिसका दूसरा भाग न हो सके, द्रव्य परमाणु है। ___ आज का विज्ञान भी यही मानता है। विज्ञान के अनुसार भी परमाणु किसी भी इन्द्रिय या अणुवीक्षण यंत्रादि से ग्राह नहीं है। जैनदर्शन में परमाणु को केवल सर्वज्ञ के ज्ञानगोचर मात्र माना गया है। आज विज्ञान का जितना भी अध्ययन है चाहे वह भौतिकी हो या रसायन हो परमाणु पर ही आधारित है। क्योंकि जैनदर्शन के अनुसार आतप और उद्योत भी पुदगल की ही पर्यायें हैं। आज विज्ञान का अध्ययन करने वाला प्राथमिक छात्र भी यह जानता है कि परमाणु को हम देख नहीं सकते, इन्द्रियों से जान नहीं सकते, परमाणु तत्त्व का सबसे छोटा कण है, परमाणु उदासीन है, यह रासायनिक अभिक्रिया में भाग लेता है, परमाणु स्वतन्त्र रूप से नहीं पाया जाता आदि । (संक्षिप्त विवरण हेतु - देखें विज्ञान, भाग 1, उ. प्र. सरकार द्वारा निर्धारित कक्षा 9-10 की पुस्तक)। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हजारों वर्ष पूर्व जैन दार्शनिको द्वारा कथित परमाणु सम्बन्धी विज्ञान पूर्णतः सत्य था । कुन्दकुन्द का 'णेव इंदिए गेज्झं' कथन आज पूरी तरह खरा उतर रहा है। तत्वार्थसूत्र में परमाणु को अप्रदेशी कहा गया है - 'नाणोः यहाँ अप्रदेशी का अर्थ है एक प्रदेशी । परमाणु से छोटा कोई द्रव्य नहीं होता, अत: दो आदि प्रदेश उसके हो नहीं सकते। दूसरी बात यह भी है कि आकाश के जितने स्थान को अविभागी परमाणु रोकता है वह एक प्रदेश है। यथा - जावदिवं आवासं अविभागी पुग्गलाणु उहवं । तं तु पदेस जाणे सव्वाणुडाणदाणरिहं ॥' विशेष ध्यातव्य यह भी है कि पुदगलों की परमाणु अवस्था स्वभाव पर्याय है और स्कन्धादि अवस्था विभाव पर्याय है। जैनदर्शन और विज्ञान दोनों के अनुसार ही परमाणु जितने हैं उतने ही रहेंगे, उनमें न एक घट सकता है और न बढ़ सकता है। पुदगल द्रव्य के प्रदेशों के सन्दर्भ में उमास्वामी का कथन है कि वे अर्थात् पुदगलों के प्रदेश सख्यात, असंख्यात और अनन्त हैं। वस्तुत: तो पुद्गल परमाणु रूप है किन्तु बन्ध के कारण कोई पुद्गल स्कन्ध संख्यात प्रदेशों का होता है, कोई स्कन्ध असंख्यात प्रदेशों का होता है, कोई स्कन्ध अनन्तप्रदेशों का और कोई अनन्तानन्त प्रदेशों का होता है । यथा - संख्येषासंख्येयाश्च पुद्गलानाम् । परमाणु की उत्पत्ति - परमाणु शाश्वत है अतः उसकी उत्पत्ति उपचार से है। परमाणु कार्य भी है और कारण भी। जब उसे कार्य कहा जाता है तो उपचार से ही कहा जाता है, क्योकि परमाणु सत् स्वरूप है, धौव्य है। अत: इसकी उत्पत्ति का प्रश्न नहीं उठता। परमाणु पुदगल की स्वाभाविक दशा है। दो या अधिक परमाण मिलने से स्कन्ध बनते हैं। अत: परमाण स्कन्धों १. नियमसार, गाथा 26 २.तत्वार्थसूत्र/11 ३. द्रव्यसंग्रह, गाथा 27 ४तस्वार्थसूच,5/10
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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