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तद्वयसम्बन्धी बीज को पाकर विस्तार के साथ स्पष्ट किया। इस विषय में आचार्य उमास्वामी के अवदान को निश्चित रूप से सराहा गया है तभी तो परवर्ती आचार्यों ने इस विषय को विशेष रूप से प्रतिपादित किया है।
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जैनागम की स्वतन्त्र देन नय पद्धति के आश्रय से भी उक्त विषय की सिद्धि की गई है। अनेक पौराणिक कथनों पर भी भुज्यमान के अपकर्षण करण का स्पष्टीकरण हो जाता है।
लौकिक उदाहरणों से समझा जा सकता है। जैसे किसी व्यक्ति ने एक लालटेन किसी दुकानदार से रातभर जलाने हेतु किराये पर ली। दुकानदार ने उसमें रात भर जलती रहेगी इतना पर्याप्त तेल भर दिया और ग्राहक को कह भी दिया कि यह लालटेन रात्रभर जलेगी किन्तु ग्राहक के घर वह रात्रि 12 बजे बुझ गई, उसका मेंटल नहीं टूटा और न वह भभकी किन्तु समय से पूर्व बुझ गई। दुकानदार से ग्राहक शिकायत करता है। दुकानदार परेशान होता है उसे असमय में बुझने का कारण नहीं पता होता। जब वह सावधानी से देखता है तो लालटेन के नीचे छोटा बारीक सुराक पाता है और वह असमय में बुझने के कारण को जान जाता है। ऐसा ही आयुकर्म के सम्बन्ध में है। बाह्यनिमित्त से आयुकर्म के निषेक समय से पूर्व झड़ जाते हैं और कर्मभूमिया मनुष्य तिर्यञ्च अपमृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
सभी प्रमाणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बध्यमान आयु की स्थिति और अनुभाग में जिस प्रकार अपवर्तन होता है उसी प्रकार भुज्यमान आयु की स्थिति और अनुभाग में भी अपवर्तन होता है किन्तु बध्यमान आयु की उदीरणा नही होती और भुज्यमान आयु की उदीरणा होती है, जिससे अकालमरण (अपवर्तन) भी होता है इसमें कोई सशय / सन्देह को अवकाश नहीं है।
वर्तमान में चिन्तनीय है कि शास्त्रों में स्वकाल मरण और अकालमरण दोनों व्याख्यान पढ़ने के बाद भी कुछ लोग अकालमरण का निषेध क्यों करते हैं, उनका इसमें क्या उद्देश्य है ? तो सर्वमान्य शास्त्रीय विषय के निषेध में कोई विशेष प्रयोजन प्रतीत होता है। वह यह है कि लोग संसार, शरीर, भोगों से भयभीत न हों, और संयम व्रत चारित्र से दूर रहें। उन जैसे भोगविलासिता में लिप्त रहते हुए, अपने को धर्मात्मा कहला सकें या मानते रहें । पुरुषार्थहीन रहते हुए स्वयं भोगी रहें और दूसरों को भी अपने जैसा बनाये रखें जिससे स्वार्थसिद्धि में बाधा न रहे।
१. कालनयेन निदाघदिवसानुसारि पच्यमान सहकार फलवत्समया यत्र सिद्धिः अकालनयेन कृत्रिमोष्णपच्यमानसहकार फलवत्समयानायत्रसिद्धिः ॥ - प्रवचनसार,